चलो चलकर बैठेंगे
हरी हरी घास पर
सरदी की दोपहर की शरमाई सी
सुनहरी धूप के संग
खाएंगे गरम गरम जलेबी
और देखेंगे ढेर सारे
सपने................
बनाएंगे रेत के महल
क्या हुआ जो महल
अगले ही क्षण टूट-टूट कर
बिखर जाएगा
हम फिर बनाएंगे नया महल
भला हमें सपने देखने से
कौन रोक सकता है....
चलो चलकर बैठेंगे
हरी-हरी घास पर
और जी भर कर निकालेंगे
एक एक कर मन की सारी कुंठाएं
और खारिज करेंगे उन्हें
जो अपनी शान में खुद ही
कसीदे पढ़ने से नहीं अघाते
हरी हरी घास पर हम
भूल जाएंगे कि कल
कितना खराब गुजरा था
हम भूल जाएंगे कि
सितमगर ने कितने सितम
ढाए थे....
हम भूल जाएंगे कि
पिछली दीवाली की रात
कितनी काली थी...
बस याद रखेंगे कि
फूलझडियों की रोशनी के बीच
उसकी सूरत में कितनी
मासूमियत थी
चलो चलकर बैठेंगे
हरी हरी घास पर
और नक्सा निकालकर
ढूंढेगे कोई नया शहर
और नए मुलाकाती
क्योंकि इन मुलाकातों में ही
छीपी है...
भविष्य की कई नई
संभावनाएं...
और सुनहरे ख्वाबों की एक और
दुनिया....
चलो चलकर बैठेंगे
हरी-हरी घास पर ...
Wednesday, October 21, 2009
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