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Thursday, April 22, 2010

भूखी रातो का सफ़र

बारिश थमने के साथ औरतें जुटने लगी हैं। फिर वे उस बेहद कठिन सबक के बारे में बात करने लगती हैं, जो उन्हें अपने बच्चों को सिखाना होता है। और यह सबक है कि भूखे कैसे सोया जाए। वे कहती हैं, ‘यदि हमारे पास थोड़ा भी खाना होता है तो हम उसे बच्चों को दे देते हैं। थोड़ा और खाना होने पर वह मर्दो की खुराक बन जाता है। औरतों को भूखे रहने की आदत होती है।’




पूर्वी उत्तरप्रदेश की एक निर्धन देहाती बस्ती में शाम गहरा रही है। बारिश से बचने के लिए हम एक छोटे से घर में शरण लेते हैं। फूस की टपकती छत के नीचे मिट्टी की ऊबड़-खाबड़ सतह पर झुंड में बैठी मुसहर औरतें बतिया रही हैं। वे बात कर रही हैं जमीन, रोजगार, भोजन और किसी उम्मीद के बिना जिंदगी की कठिनाइयों से जूझने के अलग-अलग रास्तों के बारे में। बारिश थमने के साथ ही और औरतें जुटने लगी हैं।




अब उनकी बातें बच्चों और उनकी परवरिश पर केंद्रित हो जाती हैं। और फिर वे उस बेहद कठिन सबक के बारे में बात करने लगती हैं, जो उन्हें अपने बच्चों को सिखाना होता है। और यह सबक है कि भूखे कैसे सोया जाए। ‘हफ्ते में आधा दिन हमें सब्जी या दाल के साथ रोटी या चावल नसीब होते हैं।




बाकी दिन केवल रोटी या नमक-हल्दी वाले उबले चावल के साथ काटने होते हैं। लेकिन महीने में चार या पांच दिन ऐसे होते हैं, जब हमारे पास खाने को कुछ नहीं होता। तब हमारे पास फाका करने के सिवा और कोई चारा नहीं होता। यदि हमारे पास थोड़ा भी खाना होता है तो हम उसे बच्चों को दे देते हैं। थोड़ा और खाना होने पर वह मर्दो की खुराक बन जाता है। औरतों को भूखे रहने की आदत होती है।’




महीने के उन उजड़े दिनों में, जब घर में न अन्न का एक दाना होता है और न करने को कोई काम, तब समूचा कुनबा खाने की तलाश में निकल पड़ता है। यदि नसीब ने साथ दिया तो दिन भर की तलाश के बाद मुट्ठी भर अनाज तो हासिल हो ही जाता है। इसे एक बड़े से बर्तन में उबाला जाता है ताकि ज्यादा का भ्रम पैदा किया जा सके।




लेकिन बच्चों के पेट अब भी खाली हैं और वे भोजन के लिए बेचैन हो रहे हैं। ‘हम उनके आंसू नहीं देख सकतीं,’ औरतें अपनी बात जारी रखती हैं। ‘जब बच्चों की तकलीफ बर्दाश्त के बाहर हो जाती है, तब हम तंबाकू मसलकर उन्हें अपनी अंगुलियां चूसने को दे देती हैं। इससे वे बिना कुछ खाए-पिए भी सो जाया करते हैं।




यदि बच्चे छोटे हों तो हमें उन्हें तब तक पीटना पड़ता है, जब तक वे रोते-रोते न सो जाएं। लेकिन बच्चों के बड़े होने पर हम उन्हें भूख के साथ जीना सिखाने की कोशिश करते हैं। यह एक ऐसा सबक है, जो जिंदगी भर उनके काम आएगा। क्योंकि हमें पता है कि भूख जीवन भर उन्हें सताने वाली है।’




जिन लोगों के लिए भूख जिंदगी की एक क्रूर सच्चाई है, उनसे बातचीत कर हम जैसे लोग उनकी स्थिति को थोड़ा समझ सकते हैं। उन लोगों से हुई इस बातचीत ने मुझे लगातार व्यग्र किया है। मैं बार-बार अपने कॉलम में इस विषय पर लिखता रहूंगा, ताकि आपको भी अपने साथ शामिल कर सकूं।




ओडीसा का एक बुजुर्ग विधुर अरखित दिन में एक दफे भात पका पाता है और वह भी तब, जब उसमें ऐसा कर सकने की ताकत बच पाती हो। यदि ऐसा न हो तो वह केवल काली चाय उबालकर पी लेता है और सो जाता है। आंध्रप्रदेश के एक बूढ़े सोमैया की दिनचर्या भोजन की तलाश करने तक सीमित है।




कभी-कभी उसके पड़ोसी उसे उबले हुए भात के साथ खाने को पतली दाल दे देते हैं। कई बूढ़े ऐसे भी हैं, जो गांव के सरकारी स्कूल में जाकर मध्याह्न् भोजन की दाल या सांभर की भीख मांगते हैं। एक बूढ़ी बेवा मालती बरिहा की पहुंच से मसाले बाहर हैं, लिहाजा वह चावल के साथ सालन नहीं खा पाती। अक्सर उसमें इतनी ताकत भी नहीं बची रह जाती कि वह ईंधन के लिए लकड़ियां जुटा सके। ऐसे मौकों पर उसे अधपके भात और आलू से ही काम चलाना होता है।




अंतम्मा बहुत पहले ही विधवा हो गई थी और उम्र बढ़ने पर बच्चों ने भी उसे छोड़ दिया। वह स्वीकारती है कि दिन के अधिकांश समय उसका ध्यान अगले जून की रोटी का जुगाड़ करने पर ही केंद्रित रहता है। अक्सर वो सोचती है कि भीख मांगना शुरू कर दे, लेकिन पड़ोसियों की कानाफूसी से उसे डर लगता है।




उसने एक दफे स्कूल जाकर भीख में मध्याह्न् भोजन का खाना मांगकर खाया था, लेकिन बाद में वह इस अपराध-बोध से भर गई कि उसने बच्चों के हिस्से का खाना खा लिया है। ओडीसा की एक विधवा महिला शंकरी छोटे और मुलायम बांसों को पीसकर भोजन के रूप में उनका इस्तेमाल करती है। भोजन का एक अन्य स्रोत है विषैला जंगली पौधा कड्डी, जिसे वह छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर एक थैली में दबाकर दिनभर के लिए नदी में रख देती है।




कड्डी का विषैलापन बह जाता है और शंकरी के परिवार को भोजन मिल जाता है। शंकरी के लिए जून और जुलाई के महीने अच्छे बीते थे क्योंकि इस दौरान वह थोल और कुसुम के जंगली फल जुटा पाई थी, जिनके एवज में उसे चावल की चूरी और नमक मिल गए। शंकरी के बच्चों को गोश्त का स्वाद केवल बारिश के दिनों में ही मिल पाता, जब वह उनके लिए घोंघे बटोरकर लाती।




जब उसमें खेतों में काम करने की क्षमता थी, तब उसे मेहनताने के तौर पर डेढ़ किलो महुआ मिला करता था। अब जबकि उसके बच्चे बड़े हो गए हैं और वह अकेली रह गई है, उसकी तकरीबन पूरी पेंशन भात खरीदने में ही खर्च हो जाती है। और वह भी महीने भर के लिए काफी नहीं होता।




75 बरस की बूढ़ी और जर्जर उड़िया बरिहा ने छुटपन में ही छोटी माता के चलते दोनों आंखें गंवा दी थीं। १५ साल की उम्र में वह यतीम हो गई। वह कहती है, तब से अब तक तमाम उम्र जिंदगी से जूझते हुए गुजर गई, लेकिन मौत ने अभी तक दरवाजे पर दस्तक नहीं दी। उसका अधिकांश वक्त जंगलों में सूखी लकड़ियां बटोरते बीतता है।




इनमें से कुछ का उपयोग वह ईंधन के बतौर करती है और कुछ को बेच डालती है। फिर वह भात पकाती है और पानी या साग के साथ खाती है। शाम को वह गोशालाओं की सफाई करती है, जिसके बदले में उसे पका हुआ भात मिल जाता है। बीमारी या थकान के चलते जब वह काम नहीं कर पाती, तब उसके पास भीख मांगने के सिवा और कोई चारा नहीं होता।




धोनु बड़िया के भाई को १४ साल पहले जब यह पता चला कि धोनु को कुष्ठ है तो उसने उसे घर से निकाल बाहर कर दिया। तब से वह भीख मांगकर गुजारा करता रहा। ओडीसा के अकालग्रस्त जिले बोलंगीर के गांव बुरुमाल में एक छोटी-सी झोपड़ी में वह अकेले दिन गुजारता। सालों बाद स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के आग्रह पर धोनु के भाई ने उस पर तरस खाते हुए अपने घर की गोशाला के एक खुले बरामदे में उसे जगह दी। बकरियां चराने की एवज में धोनु का भाई उसे चावल की जरा सी बासी लपसी खाने को देता है।




धोनु को अपने अंगुली रहित हाथों से यह भोजन खाने में खासी कठिनाई होती है। उसे सरकार से पेंशन की आस है, ताकि उससे पेट भरने को पर्याप्त, ठोस भोजन प्राप्त कर सके। उसे अपना शरीर साफ करने के लिए साबुन की भी दरकार है। धोनु के सपनों की सरहद बस इतनी ही है।

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