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Tuesday, February 17, 2009

बहुत कुछ कहना है ...तुमसे

बहुत बातें अनकहीं रह गईं
दफ्तर से घर लौटते हुए
कहने का करते रहे अभ्यास
घर पहुंच कर बातें बदल गईं
उन बातों पर रोज़मर्रा एक चादर
चढ़ती चली गई, परतें मोटी हो गईं
कोई हवा आएगी एक दिन जब
उड़ा ले जाएगी उन चादरों को
बहुत सी बातें वहीं दबीं मिलेंगी
तब तुम पढ़ लेना, तफ्सील से
बहुत कुछ कहने की चाहत में
क्यों मैं हर दिन तरसता हुआ...
बातें बदलता रहता हूं तुमसे
बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की
कुछ कहने का अभ्यास करता हुआ
दफ्तर से जब भी घर आता हूं
बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके।

Sunday, February 15, 2009

नज़रिए की ज़रूरत........

उसकी उम्र होगी यही कोई 6 साल या उससे भी कुछ कम। एक मैली-सी फटी हुई फ़्रॉक पहनी हुई, नंगे पैर, धूप में सिग्नल पर रूक रही गाड़ियों के बीच इधर-उधर भाग रही थी वो। हाथों में अंग्रेजी मैग्ज़ीन की कुछ प्रतियाँ पकड़े हुए। मैग्ज़ीन को दिखा-दिखाकर वो कह रही थी खरीद लो सा'ब अच्छी है। मैग्ज़ीन पर जलते हुए जम्मू की तस्वीर थी और लिखा हुआ था - "We need a new way to look at the problems..."
वो मैग्ज़ीन की कवर स्टोरी थी। जो शायद ये सोचने के लिए कह रही थी, कि देश की परेशानियों को देखने के लिए हमें ज़रूरत है एक नई नज़र की। लेकिन, मुझे उस मैग्ज़ीन पर पता नहीं क्यों जलता हुआ जम्मू नहीं बल्कि फ़्रॉक पहने वो 6 साल की बच्ची दिखाई दे रही थी। जो कह रही थी - क्या आप मुझे देख पा रहे है???

Thursday, February 12, 2009

वैलेंटाइन डे .......प्यार का दिन

रातों को नींद नही आती
होठों पर उसका नाम होता है
आंखों में उसके ख्वाब होते हैं
दिल में उसका ख्याल होता है
प्यार करने वालों का
शायद यही हाल होता है
इसीलिए ----------
प्यार के लिए कोई मौसम नही होता
क्यूंकि
प्यार सिर्फ़ एक दिन में सिमटा नही होता
प्यार प्यार होता है
किसी खास दिन के लिए बंधा नही होता
प्यार करने वालों के लिए
दिन खास नही होता
प्यार करने वालों के लिए
हर दिन प्यार का दिन होता है
प्यार करने वाले दिनों के
बंधनों में नही जकडे जाते
वो तो सिर्फ़ प्यार करते हैं
प्यार में जीते और प्यार में मरते हैं
प्यार करने वाले कब
दिनों के फेर में पड़ते हैं
उनके दिन रात तो सिर्फ़
प्यार में कटते हैं
ऐसे में कौन दिनों को गिनता है
प्यार करने वाला तो सिर्फ़
प्यार के लम्हों में जीता है

Monday, February 9, 2009

वो बचपन की दोस्ती.... और आज की दोस्ती

कोई हाथ भी ना बढ़ायेगा
जो गले मिलोगे यूं तपाक से
ये नये मिजाजों का शहर है..
जरा फांसले से मिलो....
ये सही है कि आज के दौर में..कागजी दुनिया..दौड़ती-भागती जिंदगी में...जहां हम काम करते हैं...दो वक्त की रोटी के लिये जद्दोजहद करते हैं,(रोटी घर की हो या फिर फाइव स्टार में लंच डिनर)...वहां सच्चे दोस्तों की कमी है...आमतौर पर औपचारिक,पेशेवर तरीके से लोग मिलते हैं...झूठी हंसी,दोस्ती की फीकी चादर ओढ़े हुए ऐसे बहुत से लोग हमें रोज मिलते हैं...हम भी जानते हैं..वो भी जानते हैं कि ये रिश्ता..या दोस्ती महज काम निकालने या काम करने के लिये हैं..हम अपने कॉलेज के..बचपन के,मौहल्ले के उन दोस्तों को याद करते हैं...जो हमारे लिये अपने घर में डांट खाते थे...कहीं शादी में गये तो..हमारे लिये भी साइड से एक थैली में गाजर का हलवा भर लाते थे..पैसे मिलाकर पिक्चर देखना,होटल में दस-दस रूपये मिलाकर बिल चुकाने वाले...उन दोस्तों की जगह कोई कभी नहीं ले सकता...लेकिन ऐसा भी नहीं है कि समय और जगह बदलने के साथ हमें नये और भरोसमंद दोस्त नहीं मिलते...सौ की भीड़ में एक या दो लोग अब भी ऐसे निकाल आते हैं..जो पुराने दोस्तों की याद ताजा कर देते हैं...उनकी कमी को पूरा करने की कोशिश करते हैं...उन्हें गले लगाकर वही अपनापन,भरोसे और इत्मिनान का अहसास होता है...वो भी मुश्किल में साथ देते हैं..सुख-दुख में गले लगाते हैं...जरूरत बस...दोस्ती की उस नजर,उस शख्स को पहचानने ओर उस हाथ को पकड़ने की है...

Tuesday, February 3, 2009

ए. आर. रहमान हमारे दौर के आर. डी. बर्मन हैं. जब हिन्दी सिनेमा ने पंचम को खोया तो लगा था कि एक दौर ख़त्म हो गया है. उनकी आखिरी फ़िल्म का गीत ‘एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा’ अपने भीतर उस दौर की तमाम खूबसूरती समेटे था तो एक दूसरे गीत ‘रूठ न जाना’ में वही शरारत थी जो आर. डी. के संगीत की ख़ास पहचान थी. लगा पंचम के संगीत की अठखेलियाँ और शरारत अब लौटकर नहीं आयेंगे. लेकिन तभी दक्षिण भारत से आई एक डब्ड फ़िल्म ‘रोज़ा’ के गीत ‘छोटी सी आशा’ ने हमें चमत्कृत कर दिया. इस गीत में वही बदमाशी और भोलापन एकसाथ मौजूद था जो हम अबतक पंचम के संगीत में सुनते आए थे. ए. आर. रहमान के साथ हमें हमारा खोया हुआ पंचम वापिस मिल गया.

मैं अपने बचपन के दिनों में रहमान के संगीत वाली हर फ़िल्म की ऑडियो कैसेट ज़िद करके ख़रीदा करता था. यह वो समय था जब हमारे घर में नया-नया टेप रिकॉर्डर आया था. हम उसमें अपनी आवाज़ें रिकॉर्ड कर सुनते थे और वो हमें किसी और की आवाज़ें लगती थीं. हम कभी भी अपनी आवाज़ नहीं पहचान पाते थे. और हम उसमें रहमान के गाने सुनते थे. मेरा दोस्त विशाल बहुत अच्छा डाँस करता था और रहमान की धुनों पर वो एक ख़ास तरह का ब्रेक डाँस करता था जो सिर्फ़ उसे ही आता था. हम दोस्त एक दूसरे के जन्मदिन का बेसब्री से इंतज़ार करते और हर जन्मदिन की पार्टी का सबसे ख़ास आइटम होता विशाल का ब्रेक डाँस. हर बार हम विशाल से कहते कि वो हमें अपना डाँस दिखाए. पहले तो वो आनाकानी करता लेकिन हमारे मनाने पर मान जाता. हम कमरे के सारे खिड़की/दरवाज़े बंद कर लेते. हमें ये बिल्कुल पसंद नहीं था कि कोई और हमें देखे. मैं टेप रिकॉर्डर ऑन करता और कमरे में रहमान का ‘हम्मा-हम्मा’ गूंजने लगता. विशाल अपना ब्रेक डाँस शुरू करता और हम बैठकर उसे निहारते. हमें लगता कि वो एकदम ‘प्रभुदेवा स्टाइल’ में डाँस करता है. हम भी उसके जैसा डाँस करना चाहते थे. कभी-कभी वो हमें भी उस ब्रेक डाँस का कोई ख़ास स्टेप सिखा देता और हम उसे सीखकर एकदम खुश हो जाते. थोड़ी ही देर में हम सारे दोस्त खड़े हो जाते और सब एकसाथ नाचने लगते. विशाल भी कहता कि जब सब एकसाथ डाँस करते हैं तो उसे सबसे ज़्यादा मज़ा आता है.


अब तो कई साल हुए विशाल से मुलाकर हुए. मैं दिल्ली आ गया हूँ लेकिन आज भी जब मैं कहीं रेडियो पर ‘हम्मा-हम्मा’ सुनता हूँ तो मेरे पाँव में थिरकन होने लगती है और उस वक़्त मुझे विशाल की बहुत याद आती है. और इसीलिए रहमान हमारे दौर के आर. डी. हैं. सबका चहेता. सबसे चहेता.

रहमान को मालूम है कि हम आधे से ज़्यादा पानी के बने हैं. पानी की आवाज़ सबसे मधुर आवाज़ होती है. इसीलिए वो बार-बार अपने गीतों में इस आवाज़ को पिरो देते हैं. ‘साथिया’ में उछालते पानी का अंदाज़ हो या ‘लगान’ में गरजते बादलों की आवाज़. ‘ताल’ में बूँद-बूँद टपकते पानी की थिरकन हो या ‘रोजा’ में बहते झरने की कलकल. रहमान की सबसे पसंदीदा धुनें सीधा प्रकृति से निकलकर आती हैं. वो नए वाद्ययंत्रों के इस्तेमाल में माहिर हैं और नए गायकों को मौका देने में सबसे आगे. ‘दिल से’ के लिए उन्होंने Dobro गिटार का उपयोग किया तो ‘मुस्तफा-मुस्तफा’ गीत के लिए Blues गिटार का. अपने गीत ‘टेलीफोन-टेलीफोन’ के लिए उन्होंने अरबी वाद्य Ooud का प्रयोग किया. चित्रा, हेमा सरदेसाई, मुर्तजा, मधुश्री से लेकर नरेश aiyer और मोहित चौहान तक रहमान ने हमेशा नए और उभरते गायकों को मौका दिया है. उनका संगीत लातिन अमेरिका के संगीत को हिन्दुस्तानी संगीत से और पाश्चात्य संगीत को दक्षिण भारतीय संगीत से जोड़ता है. और उनके बहुत से गीतों पर सूफि़याना प्रभाव साफ़ नज़र आता है. ‘दिल से’ के गीतों में ये सूफि़याना प्रभाव ही था जिसने उसे रहमान का और हमारे दौर का सबसे खूबसूरत अल्बम बनाया है. ये प्रेम की तड़प को उस हद तक ले जाना है कि वो प्रार्थना में उठा हाथ बन जाए. ‘लगान’ में वे लोकसंगीत को अपनी प्रेरणा बनाते हैं और ‘घनन घनन’ तथा ‘मितवा’ में ढोल का खूब उपयोग मिलता है. ‘राधा कैसे न जले’ में लोकजीवन से जुड़ी मितकथाओं का और धुन में बांसुरी का बहुत अच्छा उपयोग है. ‘स्वदेस’ की धुन में स्वागत में बजने वाली धुनों का इस्तेमाल एकदम मौके के माफ़िक है. रहमान के लिए धुनों में नयापन कभी समस्या नहीं रहा.

एक वक्त था......

एक वक़्त था
जब हम साथ रहते थे हमेशा
घर में
स्कूल में
मैदान की धूल में।
लेकिन आज
चाह कर भी मिल नही पाते।
ना जाने तुम कहाँ हो...
पर मुझे ख़ुद की भी तो ख़बर नहीं .....
जाने क्या हुआ है
ख़ुद को खो चुका हू
ऐसे में कैसे ढूंढूं तुम्हें
कहां ढूंढूं तुम्हें ?

सोचता था पहले
की तुम बदल गये हो
या फिर मैं ख़ुद बदल गया हू
लेकिन आज
दफ़्तर से आकर एहसास हुआ
कि ग़लती हमारी नही
जीने के लिए पैसा चाहिए
सिर्फ़ दोस्ती और भावनाएँ नही
और मजबूरी में सभी बंधे हैं
आप भी और मैं भी।
जिम्मेदारियों के बहाने
हम खुद तक सिमट जाते हैं,
फिर भी खुद को दोष न दें
आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें