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Thursday, January 29, 2009

माँ ...कितनी याद आती है .

कितनी याद
आती है
मां
बार-बार
याद आती है
मां
घर छोड़कर
शहर तों आ गया
पर
बिन तेरे रह नहीं पाता
मां
याद आती हैं
तेरे हाथ की बनी
रोटियां
और
तेरा दुलार
कितना अच्छा होता
कि
गाँव में ही
मिल जाता
रोजगार
ताकि कभी
दूर
न होते
तेरी ममता कि छांव
और
प्यार।

अशोक .....

पता नही कैसे उसे मेरा
थोड़ा सा बैचैन होना प्यार लगा
क्या प्यार बचैनी का दूसरा नाम है
हम तो अपने ही ख्यालों में गुम थे
मगर कैसे उसको लगा ये प्यार है
हर आहट पर चोंक जाना तो
तुम्हें पता है मेरी पुरानी आदत है
दिन में भी ख्वाब देखना
मेरी पुरानी आदत है
हर किसी के गम को
अपना बना लेना
मेरी पुरानी आदत है
फिर उस गम को
ख़ुद महसूस करना
मेरी पुरानी आदत है
फिर कैसे तुम्हें लगा
मुझको तुमसे प्यार है
मैंने तो कभी कहा नही
तुम्हारे लिए बैचैन नही
फिर कैसे तुम्हें लगा
जैसे हर ख्वाब साकार नही होता
वैसे हर बैचैनी प्यार नही होती
मुझे अपने ख्वाबों की ताबीर न बना
मैं तो इक साया हूँ
मुझे हमसाया न बना
मैं तेरा प्यार नही ख्याल हूँ
तुम मेरा प्यार नही
सिर्फ़ अहसास है
इस हकीकत को मान ले
और इस ख्वाब को
प्यार का नाम न दे

Wednesday, January 28, 2009

कॉमर्शियल break

शरबतिया कल भूख से मर गई
मीडिया की उसपर नजर गड़ गई
अख़बार वाले आए ,आए टीवी वाले भी
दो दिनों के बाद आये मुख्यमंत्री के साले भी।

परिजनों के इन्टरव्यू लिए गए
मृतिका की तस्वीर
बिकने के लिए तैयार हो गयी
मौत की तहरीर ।

भूख से हुई मौत
कितनों की भूख मिटाएगी
मौत की ख़बर भी
कॉमशिॅयल ब्रेक के साथ दिखायी जायेगी ।

नमस्कार ,आज की टॉप स्टोरी में हम
शरबतिया की भूख से हुई मौत को दिखायेंगे
हत्या,लूट ,बलात्कार वाले आइटम
बाद में दिखाए जायेंगे ।

सात दिनों से भूखी शरबतिया के
निकल नहीं रहे थे प्राण
सूखी छाती से चिपटे बच्चे के चलते
अटकी थी शायद उसकी जान ।

आख़िर ममता पर भूख पड़ी भारी
थम गई आज शरबतिया की साँस
छाती से चिपटे बच्चे ने लेकिन
छोड़ी नही थी दूध की आस ।

खबरें अभी और भी हैं श्रीमान
जाइयेगा नहीं
मौत की ऐसी मार्मिक ख़बर
किसी और चैनल पर पाइयेगा नहीं ।

परन्तु फिलहाल हम एक
छोटा सा ब्रेक लेते हैं
आपको भी आंसू पोछने का
थोड़ा वक्त देते हैं ।

प्राइम टाइम पर
ख़बरों का सिलसिला जारी है
शरबतिया के बाद उसके
मरणासन्न बेटे की बारी है ।

बच्चा भूखा है
कुपोषण का शिकार है
दो-चार दिनों में वह भी
मरने के लिए तैयार है ।

हम उसपर अपनी नजर
जमाये हुए हैं
कुछ और कमाने की
जुगत भिड़ाये हुए हैं ।

बच्चा बच गया तो हमारी किस्मत
ख़बर बिकाऊ नहीं होगी
चौबीस घंटे के चैनल के लिए
टिकाऊ नही होगी ।

क्योंकि ख़बर तो वही है
जो बिकती है
कम से कम चौबीस घंटे तक
जरूर टिकती है ।

अर्थवाद के इस युग में
पैसा पत्रकारिता पर भारी है
लोकतंत्र के चौथे खम्भे की
कॉमशिॅयल ब्रेक लाचारी है ।

इंडिया टीवी बना राजा

इंडिया टीवी बन ही गया नंबर वन। आज तक को पटखनी दे दी। पिछले कुछ हफ्तों से लगातार उपर चढ़ रहे इंडिया टीवी ने आज तक के लिए करो या मरो की स्थिति पैदा कर दी थी लेकिन आज तक खुद को बचा नहीं पाया। इस हफ्ते इंडिया टीवी 0.6 अंक चढ़ा है तो आज तक 0.8 अंक गिरा है। इन्हीं अंकों के चढ़ाव-उतार के चलते इंडिया टीवी कुल 20.1 फीसदी मार्केट शेयर के साथ हिंदी न्यूज चैनलों में नंबर वन बन गया है और आज तक कुल 19 फीसदी की रेटिंग के साथ नंबर दो के स्थान पर खिसक आया है। स्टार न्यूज नंबर तीन की पोजीशन पर बना हुआ है लेकिन इस हफ्ते अगर किसी ने सबसे ज्यागा गेन किया है तो वो है जी न्यूज।

इस न्यूज चैनल ने 0.8 अंक जोड़ते हुए अपने लिए कुल 11.6 का आंकड़ा जुटा लिया है। आईबीएन, समय, न्यूज24, तेज और इंडिया न्यूज जैसे चैनलों ने मामूली सा नुकसान झेला हैं जबकि स्टार न्यूज, एनडीटीवी, डीडी और लाइव इंडिया ने इस हफ्ते मामूली सा फायदा उठाया है।

इस हफ्ते की रेटिंग इस तरह है-

इंडिया टीवी- 20.1 (चढ़ा 0.6), आज तक- 19.0 (गिरा 0.8), स्टार न्यूज- 14.6 (चढ़ा 0.1), जी न्यूज- 11.6 (चढ़ा 0.8), आईबीएन7- 8.5 (गिरा 0.2), समय- 6.0 (गिरा 0.2), एनडीटीवी- 5.6 (चढ़ा 0.1), न्यूज24- 4.1 (गिरा 0.5), तेज- 4.0 (गिरा 0.2), डीडी- 2.9 (चढ़ा 0.2), इंडिया न्यूज- 2.5 (गिरा 0.1), लाइव इंडिया- 1.6 (चढ़ा 0.2)

(समयावधि : 18 जनवरी 2009 से 24 जनवरी 2009, टीजी : सीएस-15

इमोशनल अत्याचार।

तौबा तेरा जलवा, तौबा तेरा प्यार। इमोशनल अत्याचार। ठेठ बिहारी टच। इमोशनल अत्याचार के इस दौर में इमोशनल होना नेशनल होना हो गया है। अनुराग की नई फिल्म देव डी का यह गाना इमोशनल अत्याचार- देवदास के नाम पर लंपट बन रहे लैलाओं और आसिफों को लाइन पर लाने का उपचार है। डी यू के दिनों में कई ऐसे यौवनबहुल युवाओं को देखा है। सेंटी हो जाते थे किसी लड़की पर, उसके बाद सेंटिमेंटल होने लगते थे रात भर। उसके आने जाने का टाइम पता किया, घर का पता और उसे नोट्स देने का इंतज़ाम। बस शुरू हो जाता था इमोशनल अत्याचार।

इमोशनल अत्याचार खुद से अपने ऊपर किया जाने वाला अत्याचार है। जहां तक मुझे लगता है। कई लोग क्लास के बाद तब तक रूकते थे जब तक वो लड़की बस से घर न चली जाए। अगर कोई लड़की कार से आ गई तो पहले से ही उसकी अमीरी को लेकर खुद पर इमोशनल अत्याचार शुरू हो जाता था। यार कहां वो..कहां..मैं। औकात में रह बेटा। बस प्रेम का दि एंड।

प्रेम की तमाम निजी अभिव्यक्तियां फिल्मों की नौटंकी से मिलती जुलती हैं। आई लभ यू बोलने से लेकर डस्टबिन में फाड़ कर फेंके गए उन तमाम ख़तों की हर अदा हम अपनी जवानी में ओरिजीनल समझ कर लुटाते रहते हैं। लेकिन ये सब आता है फिल्मों से। बहुत कम प्रेमी होते हैं जो प्रेम में ओरिजीनल होते हैं और इमोशनल अत्याचार नहीं करते।

इस बेहतरीन गाने को सुनते हुए उन तमाम लंपट हरकतों की यादें ताजा हो गईं जिसमें एक लड़का और लड़की हर दिन एक दूसरे को बिना बताये चाहते रहते हैं। जब नहीं बोल पाते तो इमोशनल अत्याचार करने लगते हैं। मुझे वो लड़की क्यों याद आ गई जिसे कोई अच्छा लगता था मगर इतना बताने से पहले वो अपने भीतर हज़ार बार अपने पिता से ज़िरह करती, अपने रिश्तेदारों के डर से कांपती हुई हर दिन सौ मौतें मरती रहती। किसी को पसंद कर उसने जो इमोशनल अत्याचार किया वो सिर्फ इमोशनल लोग समझ सकते हैं। वो लड़का क्यों याद आ गया जो झूठी पट्टी बांध कर लड़कियों के बीच नाटक करता था कि गिटार बजाते हुए उसकी उंगलियां कट गईं। पटना का साला लंपू...बाप जनम में गिटार नहीं देखा लेकिन पट्टी बांध कर सेंटियाता रहता था।

सेंटी होना एक ऐसी सेंटिमेंटल सामाजिक प्रक्रिया है जो बिहार और यूपी के लड़कों को डी यू की खूबसूरत लड़कियों की परछाई के पीछे भागने के लिए मजबूर कर देती है। उसे आते देख सिगरेट जला लेना, किताब निकाल लेना और किसी निर्मल वर्मा की तरह सोचने लगना। और नहीं मिलने पर....शराब पीना। अक्सर हम सब के आस पास ऐसे लड़के होते ही हैं जो सामने वाली लड़की के शादी के दिन शराब पीते हैं। कि वो तो अब पराई हो गई। उसके घर जाकर कहने की हिम्मत नहीं होती लेकिन शराब पीकर शादी के दिन तमाम कल्पनाओं का रचनापाठ कर सेंटिमेंटल हो जाते हैं। अनुराग ने ऐसे तमाम कार्बनकौपी देवदासों को ठिकाने पर ला दिया है।

इमोशनल हुए बिना तो हम नेशनल भी नहीं होते। सेंटिमेंटल कैसे हो जायेंगे। सेंटी और मेंटल अलग अलग प्रक्रिया है। सेंटी होने तक तो आप कुछ काबू में रहते लेकिन मेंटल होने के बाद गॉन केस हो जाते हैं। रेशनल लोग वो होते हैं जो जाकर कह देते हैं कि गोरी सुनो न..आई लभ यू....। फिर किसी पार्क में घूमते हुए, ठीक पांच बजे घर से निकलते हुए और दरियागंज के गोलचा सिनेमा में फिल्में देखते हुए नज़र आते हैं।


गाना ज़बरदस्त है। अनुराग ने फिल्माया भी खूबसूरती से है। पूरा देसी टच। पटना में एल्विस को ले आये हैं। माइकल जैक्सन से लेकर एल्विस ने पटना में पैदा न होकर जो गंवाया है उसे कोई नहीं समझ सकता। हमारे यहां ऐसी वेराइटी को टिनहईया हीरो कहते हैं। भारत देश के तमाम सेंटिमेंटल प्रेमियों को ट्रिब्यूट है यह गाना- इमोशनल अत्याचार।

Tuesday, January 27, 2009

जो बस खरीद ले एक झंडा ..........

नोएडा मोड़ पर गाड़ी रूकती है
बत्ती लाल होती है, मिनटों में हरी हो जाती है।
गाड़ी फिर आगे बढ़ जाती है, पर
मन वहीं थम जाता है।
कई चेहरे एक साथ याद आते हैं
दिन अकले रह जाता और
रात भी अकेली गुजर जाती है।
मैं उन चेहरों को याद करना चाहता हूं
जिसे नोएडा मोड़ पर देखा था।
हाथ में तिरंगा लिए छोटे बच्चे
बस वही याद रह जाता है
गणतंत्र लेकिन लगता है धनतंत्र
पतली सी शर्ट, हवा भी बहती है
लेकिन तिरंगे को लिए वो छोटा बच्चा
अपने ग्राहकों को खोज रहा है
जो बस खरीद ले एक झंडा......

Monday, January 26, 2009

गन्दी गली का कुत्ता करोड़पति

गंदी गली का कुत्ता करोड़पति




स्लम डॉग मिलेनियर - आजकल हर जगह इसी फ़िल्म के चर्चे हैं। अगर मैं सही हूँ तो इस अंग्रेजी नाम का हिन्दी होना चाहिए - गली का कुत्ता करोड़पति या फिर गंदी गली का कुत्ता करोड़पति। फ़िल्म बेहतरीन बनी है और इसे अवार्ड मिलना भी शुरु हो चुके हैं। विदेशियों से मिलनेवाले इन अवार्डों की संख्या अभी और बढ़ने की उम्मीद हैं। इस फ़िल्म को देखते हुए कइयों को ये लग सकता हैं कि मैं भी ऐसा ही एक गली का कुत्ता हूँ। लेकिन, बहुत गिने चुनों को ये भी साथ में लगेगा कि मैं करोड़पति भी हूँ। क्योंकि हमारी गलियों में कुत्ते तो बहुत हैं, लेकिन सफल कितने हैं ये पता नहीं...
इस फ़िल्म के ज़रिए ये बताया गया हैं कि कैसे गंदी बस्ती में रहनेवाला एक लड़का कौन बनेगा करोड़पति जीतकर रातों रात करोड़पति बन जाता हैं। लेकिन, मेरी सोच मुझे कही ओर ले जाती हैं। हमारे देश में यूँ रातों रात अमीर और मशहूर होने की बात बहुत पुरानी नहीं हैं। कौन बनेगा करोड़पति या फिर इंडियन आइडल जैसी बातें बस कुछ दसेक साल पुरानी ही हैं। इससे पहले यूँ रातों रात सफलता किसी को नहीं मिली। साथ ही ये इन्टेन्ट सफलता लोगों को ग्लैमर के जिलेटिन में लिपटी हुई मिलती हैं। जहाँ लोगों को देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब और ऐसे ही बड़े-बड़े नामों से पुकारा जाता हैं। लेकिन, टीवी से गायब हो जाने के बाद इन लोगों का क्या होता हैं कोई नहीं जानता हैं। जैसे ही सीज़न टू स्टार्ट होता हैं, नई खेप देश की आवाज़ और हार्ट थ्रोब हो जाती हैं।

वैसे भी अगर इस ग्लैमरस जिलेटिन में लिपटे कामयाब लोगों की लिस्ट तैयार की जाए तो शायद ही दो से ज्यादा लोगों के नाम याद आए। करत करत अभ्यास से जड़मति होत सुजान जैसे जुमले अब किसी को पसंद नहीं। अब तो गायक बनने के लिए आपको लुक इम्प्रोवाइज़ करना पड़ता हैं, मेक ओवर करना पड़ता हैं। अब अभ्यास कोई नहीं करना चाहता हैं। इंतज़ार का फल मीठा होता हैं। लेकिन, आज भले ही खट्टा फल मिले बस हमें जल्दी मिल जाएं। सभी होड़ में हैं इन्टेन्ट सफलता के.... अपने एक कार्यक्रम के दौरान मेरा मिलना एक ऐसे व्यक्ति से हुआ जोकि 8 बार फेल होने के बाद जज बना। इस दूध बेचनेवाले के बेटे से जब हम मिलने गए तो वो दूध बेचकर लौट रहा था। चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी। बातचीत के दौरान एक भी बार ये नहीं लगा कि वो फ़्रेटेशन में है। खुश मिजाज़ हंसता मुस्कुराता आदमी। बेहद खुश कि उसकी मेहनत रंग ले आई। शायद किसी दिन किसान का ये बेटा भी स्लम डॉग से उठकर देश के पीड़ितों को न्याय दिलानेवालों में से एक बन जाएगा। लेकिन, उसकी ये सफलता विशुद्ध मेहनत की कमाई होगी। ऐसी ही है रानी। जोकि अपनी माँ के साथ दिल्ली के ट्रैफ़िक सिग्नलों पर बैठकर गुब्बारे बेचती थी। लेकिन, आज वो लड़की एक गैरसरकारी संस्था के साथ मिलकर स्लम में रहने वाले बच्चों को पढ़ाती हैं। बातचीत के दौरान कभी भी उसके चेहरे पर शिकन नज़र नहीं आई। बीच में ज़रूर उसने कहा कि मैं ऐसा क्या कर रही हूँ जोकि मुझे कोई देखे। इंडियन आइडल और रोडिज़ के ज़रिए सफल और लोकप्रिय होने की चाहत रखने वाले मेरे साथी शायद ही रेखा और लोकेश से प्रेरित हो। फ़िल्म बेहतरीन हैं लेकिन वो भी कही न कही युवा वर्ग के मन में फ़ेन्टेसी लैन्ड बना देती हैं। फ़िल्म की इसमें कोई गलती भी नहीं है आखिर वो अपने आप में एक कहानी है जोकि काल्पनिक होती ही हैं। लेकिन, गूढ़ बात ये हैं कि ये कहानी असलियत से प्रेरित से। और, ये असलियत इतनी खोखली है कि वो इंसान को खुद में कुछ ऐसे निगल जाती हैं जैसे कि कोई ब्लैक होल। स्लम डॉग मिलेनियर हो या फिर फैशन, ये फ़िल्में न सिर्फ़ व्यवसायिक रूप से सफल हैं बल्कि आँखें खोलने वाली भी हैं। हालांकि पता नहीं कितनों ने फ़ैशन में प्रियंका के किरदार के कपड़े और लुक को याद रखा और कितनों ने उसके स्ट्रगल और ज़िदगी के थपेड़ों को। आखिर में
मेरी नज़रों में पटना के सुपर 30 में पढ़ाई कर आईआईटी तक पहुंचे बच्चे या फिर रेखा और लोकेश की तरह मेहनतकश स्लम डॉग ही असली मिलेनियर हैं। भले ही उन्हें पूरा जीवन लगा देने पड़े करोड़ रुपए कमाने में। लेकिन, कमाई की एक-एक पाई उनकी मेहनत की होगी बिना किसी ग्लैमरस और लीजलिजी जिलेटिन के...

Friday, January 23, 2009

बिहारियों का अपराध क्या

बिहारियों का अपराध क्या है जो असम से लेकर महाराष्ट्र तक हर जगह उन पर हमला होता है?

मदन महतो कोई संपन्न घर का नहीं है फिर भी पांच-छह साल पहले जब वह दिल्ली आया था तो आप और जाईयेगा वाली भाषा में बात करता था. लेकिन अब वह आंशिक रूप से दिल्ली वाला हो गया है. दिल्ली की एक सड़कछाप गाली "बहन के लौरे" उसने अच्छी तरह से आत्मसात कर लिया है. यह सब उसने इसलिए किया क्योंकि यहां कामकाजी वर्ग में दिल्ली और गैर-दिल्लीवाले का भेद इसी गाली वाले लहजे से पता चलता है. तो अब वह दिल्लीवाला हो गया है. हर दूसरे शब्द के साथ गाली जोड़ देता है. पक्का दिल्लीवाला लगे इसलिए आप की जगह लोगों से तू-तड़ाक में बात करता है. उसकी सांस्कृतिक चेतना लुप्त हो गयी है. उसकी भाषा भले बदल गयी हो लेकिन भाषा की मिठास वह चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा है. वह इतना रिफाईन्ड नहीं हो सकता क्योंकि स्कूल में ज्यादा पढ़ा नहीं है. फिर भी उसने अपनी तईं खूब कोशिश की है कि वह पूरा दिल्लीवाला बन सके.

दिल्ली में जिसको पिछड़ा घोषित करना हो तो एक शब्द बोल दीजिए. बिहारी है क्या. थोड़ा और नंगई पर उतरना हो तो साला शब्द भी जोड़ सकते हैं. और लोग जोड़ते हैं. बिहार के लोगों को अपमानित करने के लिए खुद नंगे हो जाते हैं. शायद इससे उनके तुष्ट मानस को संतुष्टि मिलती हो. और इस आक्रमणकारी मानसिकता के कारण वे अपनी मूर्खता और अयोग्यता छिपा ले जाते हैं. यह केवल बिहारी और पंजाबी या सिन्धी का खेल नहीं होता. यह एक संस्कृति का दूसरे पर हावी होने की आक्रमणकारी कला है. अगर ऐसा न हो तो पलटकर बिहार का आदमी पूछ सकता है कि तुम भी तो पाकिस्तान से भागकर आये हो? वह सिन्धी या पंजाबी समुदाय के अधिकांश लोगों के लिए भगोड़ा शब्द का इस्तेमाल कर सकता है लेकिन नहीं करता. शायद उसकी सांस्कृतिक चेतना उसे ऐसा करने से रोकती है.

इस तरह एक पतित सभ्यता जागृत चेतना पर हावी हो जाती है. मैंने देखा है कई बार बिहार के लोग मुझसे कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में क्या फर्क है? तो तुम हमसे अलग कहां हो? शुरू में मुझे लगता था कि ये मुझे अपने साथ क्यों जोड़ना चाहते हैं? फिर मैं प्रतिरोध करता था. तर्क देता था कि इलाहाबाद का बिहार से क्या लेना-देना. लेकिन लोग बताते हैं कि देश के कुछ हिस्सों में बनारस और आस-पास के लोगों को यूपी का बिहारी कहा जाता है. अब मैं प्रतिवाद नहीं करता. हो सकता है मेरे अंदर थोड़ी समझ आ गयी हो इसलिए मैं प्रतिवाद नहीं करता लेकिन उन लोगों को कब समझ आयेगी जिन्होंने एक क्षेत्र और कौम को ही निंदित घोषित कर दिया है?

बिहारी शब्द अरूचि क्यों पैदा करने लगा है? जबकि जहां भी बिहार के प्रवासी हैं वे उस अर्थव्यवस्था में रीढ़ की तरह अपना योगदान देते हैं. क्या रीढ़ को हटाकर हम किसी शरीर की कल्पना कर सकते हैं. जिस महाराष्ट्र में बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे दोयम दर्जे के लोग नफरत की राजनीति कर रहे हैं वहां के औद्योगिक इलाकों में मैं खूब घूमा हूं. आप किसी भी एमआईडीसी में चले जाईये, जहरीले रसायनों और खतरों के बीच जो इंसान अपना खून-पसीना बहा रहा होगा वह बिहार का मजदूर होगा. यूपी के लोग थोड़े चालाक हैं इसलिए यूपी के मजदूर उस तादात में फैक्ट्रियों में काम नहीं करते. करते भी हैं तो सुपरवाईजर और वाचमैन होते हैं. लेकिन असली हाड़तोड़ मेहनत बिहार का मजदूर करता है. एमआईडीसी के आस-पास मजदूरों की बस्ती में रहता है. कल्याण की एमआईडीसी का मैंने सघन दौरा किया है और उन मजदूरों के बीच रहा हूं.

बिहारी मजदूरों का जीवन ऐसा होता है कि वे सप्ताह में एक दिन सूरज देखते हैं. बाकी के दिन सूरज निकलने से पहले फैक्ट्री के अंदर और सूरज डूबने के बाद बाहर निकलते हैं. अधिकांश केमिकल और साड़ी प्रिंटिंग की कंपनियां हैं जिसमें बिना किसी सुरक्षा उपाय के वे मजदूर 12 घंटे की शिफ्ट लगाते हैं. इसके बदले में उन्हें 120 से 150 रूपये मिलते हैं. यह उस बिहारी मजदूर की मेहनत का ही तमाशा है कि मुंबई औद्योगिक नगरी बनी इतरा रही है. इतना सस्ता लेबर शायद ही दुनिया के किसी देश में मिलता हो. यह बाल ठाकरे भी समझते हैं और राज ठाकरे भी. लेकिन इस बात को बिहार का ही राजनीतिक नेतृत्व नहीं समझ सका. उसे आज तक इस बात का अहसास नहीं हो सका कि अपने राज्य के लोगों के लिए वह सम्मानित रोजगार के अवसर कैसे पैदा कर सकें? तो फिर दोष किसका ज्यादा है? बाल ठाकरे का या लालू प्रसाद और नीतिश कुमार जैसे लोगों का जो बहुत बेशर्मी से बिहार का नेता होने का दावा करते हैं? क्या यहां की राजनीतिक चेतना का आर्थिक रूपातंरण नहीं हो सकता?

दिल्ली में बिहार -यूपी के भइया

दिल्ली सरकार ने जब दिल्ली भोजपुरी-मैथिली अकादमी का गठन किया, तब ऐसा लगा था कि कम से कम राष्ट्रीय राजधानी में भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकारों को महत्व दिया जाने लगा है। तब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन भाषाओं और उसे बरतने वाले समाज के विकास योजनाओं की घोषणा करके बडी उम्मीद भी जगा दी थी। उन दिनों राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना के एक बयान और प्रवासी आबादी को महानगर की आधारभूत सुविधाओं पर अनावश्यक बोझ ठहराकर मुख्यमंत्री फजीहत झेल चुकी थी।

इसलिए अकादमी के गठन से समझा गया कि कांग्रेस आगामी दिनों में पुरबिया समुदायों के बीच अपनी पुरानी पकड को फिर से बहाल करने के प्रयास करने वाली है। लेकिन जब विधानसभा चुनावों के अवसर आए तो देखा गया कि पार्टी ने उस समुदाय को कोई खास महत्व नहीं दिया।

उत्तर भारतीय लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र मेंं कई महीनों से जारी उपद्रव के लगातार अधिक हिंसक होते जाने और उसे संभालने में कांग्रेस सरकार की असफलता से सहज ं अनुमान लगता है कि दिल्ली विधानसभा के इन चुनावों पर राजठाकरे फैक्टर का प्रभाव होगा। और पुरबिया लोग एकजुट होकर वोट डालेगे। इसका लाभ उठाने का प्रयास कंाग्रेस की मुख्य प्रतिद्वद्वी पार्टी भाजपा करेगी। पर पार्टी ने आश्चर्यजनक ढंग से पूरे मसले से कन्नी काट ली। इससे साफ है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को स्वीकार नहीं करने में राष्ट्रीय पार्टियों में एक अघोषित एकता बनी हुई है। सत्ता की दावेदार दोनों बडी पार्टियों ने प्रवासी समुदायों को संख्या के अनुरुप उम्मीदवारी नहीं दी। यही नहीं, चुनाव प्रचार के दौरान भी उनसे जुडे मुददे नहीं उठे। हालाकि निजी उद्यम से राजधानी के समाज में महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतििष्ठत होने के बलबुते कई लोग सपा, बसपा जैसी पार्टियों के उम्मीदवार बन गए हैं। निजी प्रभाव और वोट के गणित अनुकूल होने पर उनमें से कुछ को चुनावी जीत भी हासिल हो सकती है। लेकिन प्रांत आधारित पार्टियों की स्वीकार्यता अन्य प्रांतों से आए लोगों में कम होने से उनकी जीत का भी स्थानीय राजनीतिक माहौल पर कोई खास असर नहीं होने वाला।

ठाकरेगिरी के निशाना वर्षों से वहां बसे और किसी काम के सिलसिला में कुछ दिनों के लिए गए दोनों तरह के लोग बने। समूचे उपद्रव की रूपरेखा घोर सांप्रदायिक और वर्चस्ववादी है। परिस्थिति नििश्चत रूप से ऐसी है कि देश के बुनियादी राष्ट्रीय चरित्र की रक्षा के लिए समूचे राजनीतिक तंत्र को सक्रिय हो जाना चाहिए। लेकिन पूरे मसले को गलती से या चालाकी से महाराष्ट्र बनाम बिहार व उत्तरप्रदेश का रूप दे दिया गया। प्रवासी कहलाने वाले समुदायों के हित इससे नहीं सधने वाले। उनके हित स्थानीय राजनीति में सम्मानजनक हिस्सेदारी से सधेगे। और यह काम तथा कथित राष्ट्रीय पार्टियों से ही सधने वाले हैं। बौखलाहट से भरे राजठाकरे इस बात को अव्यक्त ढंग से कहते हैं, लेकिन उनके घर के सामने छठपूजा करने की धमकी देकर लालू यादव मुकर जाते हैं। इससे परिस्थिति जटिल होती गई है। इस सच को स्वीकार करने से पूरा राजनीतिक तबका कतरा जाता है कि विभिन्न क्षेत्रों से आकर स्थानीय हो गए भाषाई अल्पसंख्यकों के कानून सम्मत अधिकार और सुरक्षा के ठोस उपाय किए जाए।

रोजी-रोजगार के चक्कर में देश के विभिन्न इलाकों में बसी आबादी के राजनीतिक अधिकारों को राष्ट्रीय पार्टियों ने लगातार उपेक्षित रखा है। विधानसभा चुनावों के ताजा दौर में भी यह बात प्रमाणित हो रही है। इसका कारण और परिणाम है कि देश की संवैधानिक संस्थाओं में 23 वें स्थान पर आने वाला भाषाई अल्पसंख्यक आयोग महज सजावटी वस्तु बना हुआ है। बहुमत आधारित जोडतोड की राजनीति में संवैधानिक संस्थाएंं कितनी लाचार हो सकती हैं, इसका नमूना यह आयोग है। यह स्थिति तब है, जब परिसीमन के बाद दिल्ली में बिहारी समेत सब भाषाई अल्पसंख्यक समूदायों का गणित ऐसा बना है कि उनका दबदबा काफी बढ जाना चाहिए। राजधानी की आबादी संरचना के जानकार लोगों का कहना है कि दिल्ली विधानसभा के 70 चुनावक्षेत्रों में करीब 45 सीटें ऐसी हैं, जिसमें प्रवासी समुदायों के समर्थन के बिना कोई नहीं जीत सकता। इसका यह अर्थ भी है कि इन समुदायों के एकजुट होकर वोट करे तो किसी को हराया जा सकता है। इन क्षेत्रों में नरेला, बुराडी, किराडी, मुंडका, रिठाला, नांगलोई, द्वारका, मटियाला, नजफगढ, पालम, मुस्तफाबाद, करावलनगर, जनकपुरी, संगम बिहार, देवली, घोंडा, जहांगीरपुरी, तिमारपुर, रोहताशनगर, नंदनगरी, जाफराबाद, सीलमपुर, सीमापुरी, यमुना विहार आदि चौबीस क्षेत्रों में बिहारियों का दबदबा और प्रवासी वोटरों की संख्या 20 प्रतिशत से 45 प्रतिशत बताया जाता है। इसके अलावा बादली, मंगोलपुरी, त्रीनगर, सदर, चांदनी चौक, मटिया महल, बल्लीमारान, कालकाजी, तुगलाकाबाद, बदरपुर, ओखला, त्रिलोकपुरी, कोडली, गांधी नगर, बाबरपुर, गोकुलपुरी, आदर्श नगर, बिजवासन, सुल्तानपुरी और छतरपुर आदि में प्रवासी वोटरों की संख्या 10 से 20 प्रतिशत के बीच है।

दिल्ली को केन्द्रशासित प्रदेश से उन्नत कर संपूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए हुए आंदोलन के जमाने से ही महानगर के सामाजिक ढांचे में आए परिवर्तन की चर्चा तो हर पार्टी के नेता करते हैं। पर जब उसपर अमल करने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उस सामाजिक ढांचा को प्रतिबिंबित करने का अवसर आता है, तब सभी पुराने ढर्रे पर चले जाते हैं। पुराने ढर्रे का अर्थ ऐसे सजावटी नेताओं को पेश करना जिनको मेहनत-मजदूरी करके गुजर बशर करने वाले प्रवासियों के सुख-दुख का जिन्हें कोई जानकारी नहीं होती। हालांकि दिल्ली या अन्य जगहों पर भोजपुरी और मैथिली भाषी लोगों के प्रतिनिधियों विधानसभा भेजने में राष्ट्रीय पार्टियों की उदासीनता के लिए सिर्फ उन पार्टियों को ही दोष नहीं दिया जा सकता। इन समुदायों में किसी तरह की राजनीतिक गतिविधिं नहीं होती। छठ पूजा की आयोजन समितियों के अलावा साझा हित का कोई सामुहिक प्रयास नहीं होता। इसतरह के किसी आयोजन का नाम नहीं लिया जा सकता, जिसमें सामुहिकता की भावना का विकास हो। गिनती के लिए जितनी भी संस्थाएं है, उनपर कुद खास लोगों का कब्जा हो गया है और सार्वजनिक कार्यों के लिए बनी संस्थाओं का संचालन ट्रस्ट के अधिकारी वर्ग के निजी सनक पर होता है। राजनीतिक पार्टियों में इन समुदायों के कम ही लोग हैं और जो लोग हैं भी, उनके लिए निजी हित सर्वोपरि हैं। अब पूनम आजाद को ही क्या कहेगे? पहले दिल्ली में सक्रिय हुईं। फिर बिहार भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष बना दी गई। इधर कुछ दिनों से फिर दिल्ली भाजपा में पदाधिकारी हैं। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में मनपसंद सीट से उम्मीदवारी नहीं मिलने पर नाराज होकर पार्टी और पदों से इस्तीफा दे दिया, फिर मान भी गई और चुनाव प्रचार में भी देखी जा रही हैं।

आजादी के समय दिल्ली की राजनीति पर चांदनी चौक के मुसलमान और बाहरी दिल्ली के ग्रामीण आबादी का वचस्व था। बाद में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए कई कालोनी बसाई गई। राजेन्द्र नगर, पटेल नगर, लाजपत नगर, मोतीनगर, उत्तमनगर, राजा गार्डेन, रजौरी गार्डेन, मुखर्जी नगर के अलावा कालकाजी और शाहदरा क्षेत्र में कई नई बस्तियों का जन्म उसी दौरान हुआ। दिल्ली की राजनीति पर इन शरणार्थी के साथ साथ पंजाबी भाषा या संस्कृति का वर्चस्व हो गया, लेकिन आजादी के पहले से बिहार, उत्तरप्रदेश और देश के अन्य इलाकों से रोजगार के लिए दिल्ली आने और यहीं बस जाने वाले लोगों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के प्रश्न की पूरी अनदेखी होती रही। उन प्रवासी समुदायों में मजदूर तबका के लोग अधिक थे। उनके लिए सिर छिपाने लायक एक ठिकाना मिल जाना अधिक जरूरी था। पुनर्वास बस्तियों में स्थाई ठिकाना तो मिला ही, उसके साथ-साथ कांग्रेस को वोट दंने का प्रचलन भी हो गया। लेकिन सिर छिपाने के ठिकाने के बाद जिन चीजों की जरूरत होती है, उनके लिए टकटकी लगी रही। घर के बाद जो सब मिलना चाहिए, उनके लिए टकटकी लगी रह गई।

पाकिस्तान से विस्थापित होकर आई पंजाबी शरणार्थी और सामान्य वणिक वर्ग में पैठ होने से भाजपा और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का मजदूर वर्ग तथा मलिन बस्तियें से दूरी बनी रही। लेकिन कांग्रेस हरकिशन लाल भगत जैसे नेता के माध्यम से इन लोगों के बीच सक्रिय थी. इससे पुनर्वास बस्तियों में कांग्रेस के दबदबा की स्थिति आरंभ से बनी रही। लेकिन कांग्रेस ने कभी इन समुदायों के किसी व्यक्ति को सरकार में हिस्सेदार नही बनाया। उन समुदायों के बीच राजनीतिक नेतृत्व विकसित करने का कोई प्रयास नही किया गया। अपना बलबूते चुनाव जीतने वालों में से किसी को पार्टी में ही पर्याप्त महत्व दिया। इसके बाद भी पूरबिया वोट परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ बनी रही। हरकिशन सिंह के विद्रोह के जमाना में पहली बार लाल बिहारी तिवारी भाजपा से लोकसभा सदस्य चुने गए थे। लेकिन उस स्थिति को भाजपा बनाकर नही रख सकी। भाजपा की हालत आरंभ से ही ऐसी रही कि बस्तियों वाले क्षे़़त्रों से भाजपा नेता उम्मीदवार बनना नहीं चहते। बाद में प्रवासी नेता के नाम पर कुछ सजावटी नेताओं को आगे बढाने के प्रयास होने लगे। इसबार भी कोई ठोस प्रयास नही दिखता। इससे बसपा और सपा की ओर झुकाव की सहज संभावना बनी है। हालंकि उम्मीदवारों के निजी प्रभाव से उन पार्टियों को कहीं-कही निर्णायक समर्थन मिल भले मिल जाए, भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक अधिकार को सम्मान और जानमाल की सुरक्षा के प्रश्न हल नहीं होंगे।

करीब 30 लाख आबादी और 45 चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक दबदबा रखने वाली पूरबिया आबादी में निवर्तमान महाबल मिश्र के अलावा कांग्रेस की ओर से आमोद कंठ और अनिल चौधरी को उम्मीदवारी दी गई। भाजपा की हालत अधिक खराब है। उसने पूरे समुदाय से महज एक अनिल झा को पार्टी उम्मीदवार बनाया है। पूनम आजाद जैसी नेत्री को टिकट नहीं दिया गया। उनके विद्रोह को संभावने के लिए जरूर पार्टी को मशक्कत करनी पडी। कांग्रेस और अब भाजपा में भी इन समुदायों के वोट के महत्व की बात होती जरूर है। यही कारण है कि छठपूजा के आयोजन में सभी बडे नेता पहुंचे और भाजपा के नेताओं ने सरकार बनने पर छठपूजा के दिन सरकारी छूटटी देने का भरोसा भी दिलाया। परन्तु राजनीतिक हिस्सेदारी के प्रश्न को कालीन के नीचे दबा दिया। चुनाव घोषणापत्र में पंजाबी को द्वितीय राजभाषा बनाने की घोषणा हुई है, पर भोजपुरी-मैथिली भाषा और अन्य नवगठित अकादमी के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची से बहुत सारी बातें साफ हुई है। संगम बिहार से कांग्रेस के प्रत्याशी आमोद कंठ दिल्ली पुलिस में आला अधिकारी रहे हैं और एक एनजीओ चलाते हैं। उनकों इस समुदाय का स्वाभाविक नेता मानने में किइनाई सिर्फ एक है कि वे आभिजात्य वर्ग के हैं। भोजपुरी या मैथिली भाषी समाज के स्वाभाविक नेता होने मे कठिनाई है। द्वारका से महाबल मिश्र भी दिल्ली वाला अधिक हो गए हैं, पूरबिया समुदायों में उनकी कोई खास गतिविधि नही रहती। इसबार तो परिसीमन के वजह से पुराने क्षेत्र की कइ बिहारी बस्तियां उनके चुनाव क्षेत्र से बाहर हो गई हैं। भाजपा ने जिन अनिल झा को किरारी क्षेत्र से उम्मीदवर बनाया है, उनके खिलाफ पार्टी से विद्रोह करके एक पुष्पराज खडे हो गए हैं। जाहिर है कि अनिल झा की हैसियत एकतरह से उस समुदाय के निर्दलीय उम्मीदवार जैसी हो गइ है।

ऐसी परिस्थिति में इन चुनावों में लगता है कि सपा, बसपा आदि पार्टियों से उम्मीदवार बने निजी उद्यम से प्रतििष्ठत हुए लोगों के पीछे पूरबिया वोटर गोलबंद होेना चाहेगे। कांग्रेस की राजनीति पिछले कुछ दिनों से जिसतरह की रही है, उसकी वजह से इन चुनावों में बसपा शायद अधिक बेहतर स्थिति में है। उसको मलिन बस्तियों मेंं समर्थन मिलने की उिम्मद है। ग्रामीण क्षेत्र की दलित आबादी में भी अच्छा खासा समर्थन मिलने के आसार हैं। अगर पुरबिया वोटर राष्ट्रीय पार्टियों को सबक सिखाने के मानस में आ गए तो इसके बाद होने वाले चुनावों में शायद उन समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल केा इसतरह उपेक्षा नही की जा सकेगी। इतना तय है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी और मैथिलीभाषी वोटरों के साथ अगर उत्तरांचल व अन्य दूरवर्ती राज्यों के प्रवासी वोटर एकत्र हो जाएं, तो किसी राजनीतिक समीकरण को ध्वस्त कर सकते हैं। हालांकि वर्तमान राजनीतिक रंगढंग के बारे में यही कहा जा सकता है कि भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों की राजनीतिक भागीदारी के प्रश्न पर किसी का ध्यान नहीं है।

ओबामा -हमारा नेता

चाओ माओ के बाद बामा ओबामा
23 January, 2009 अनिल रघुराज
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सच यही है कि सारी दुनिया के लोग अंदर ही अंदर बराक को अपना नेता मानने लगे हैं। कहने का मौका मिले तो वे कह भी सकते हैं कि अमेरिका का राष्ट्रपति हमारा राष्ट्रपति है। इसी बात पर मुझे साठ के दशक के आखिरी सालों की सुनी-सुनाई बात याद आ गई, जब देश के लाखों तो नहीं, लेकिन हज़ारों नौजवानों ने नारा दिया था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। लेकिन सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते यह नारा उलाहना और हिकारत का साधन बन गया। हिंदू राष्ट्रवाद के चोंगे में सतरंगी राष्ट्र की कंबल परेड करनेवाले स्वयं-सेवक जवाब मांगने लगे – चाओ माओ कहते तो भारत में क्यों रहते हो। लेकिन वही लोग आज ओबामा को अपना नेता माननेवालों से हिकारत की इस जुबान में बात नहीं कर सकते।
बराक ओबामा को अमेरिका का 44वां राष्ट्रपति बनते दुनिया के करोड़ों लोगों ने टीवी पर लाइव देखा। मैंने भी सपरिवार देखा। शायद आपने भी देखा होगा। मेरी पत्नी ने इस समारोह को देखने के बाद सहज भाव से पूछा – क्या मार्केटिंग और नेटवर्किंग के इस युग में ओबामा जैसे साधारण आदमी के रूप में पूरी दुनिया में नई आशा और उम्मीद का पैदा होना चमत्कार नहीं है? यह एक भावना है जो युद्ध और आर्थिक मंदी के संत्रास से घिरे अमेरिका के लोगों में नहीं, सारी दुनिया के लोगों में लहर मार रही है। बराक जब चुने गए थे, तभी हमारे देश में भी पूछा जाने लगा था कि अपने यहां कोई बराक ओबामा नहीं हो सकता। बहुतों के भीतर अपने देश में किसी बराक ओबामा के न होने की कचोट सालने लगी। ओबामा का कहा हुआ वाक्य – yes we can, सबकी जुबान और मानस पर चढ़ गया। इसी माहौल में कुछ मीडिया पंडितों और कॉरपोरेट हस्तियों ने राहुल गांधी से लेकर नरेंद्र मोदी में भारतीय ओबामा की शिनाख्त शुरू कर दी।

सच यही है कि सारी दुनिया के लोग अंदर ही अंदर बराक को अपना नेता मानने लगे हैं। कहने का मौका मिले तो वे कह भी सकते हैं कि अमेरिका का राष्ट्रपति हमारा राष्ट्रपति है। इसी बात पर मुझे साठ के दशक के आखिरी सालों की सुनी-सुनाई बात याद आ गई, जब देश के लाखों तो नहीं, लेकिन हज़ारों नौजवानों ने नारा दिया था – चीन के चेयरमैन हमारे चेयरमैन। लेकिन सत्तर और अस्सी का दशक आते-आते यह नारा उलाहना और हिकारत का साधन बन गया। हिंदू राष्ट्रवाद के चोंगे में सतरंगी राष्ट्र की कंबल परेड करनेवाले स्वयं-सेवक जवाब मांगने लगे – चाओ माओ कहते तो भारत में क्यों रहते हो। लेकिन वही लोग आज ओबामा को अपना नेता माननेवालों से हिकारत की इस जुबान में बात नहीं कर सकते।

उस समय के दौर के बारे में मैं अपने अनुभव से यही कहना चाहता हूं कि चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन कहनेवाले अपनी मातृभूमि से बेइंतिहा प्यार करते थे। वे अपनी मातृभूमि की मुक्ति का स्वप्न देखनेवाले समर्पित नौजवान थे। इंजीनियरिंग संस्थानों से लेकर विश्वविद्यालयों के मेधावी छात्र थे। वे गीत गाते थे – हे मातृभूमि, तुम्हारी मुक्ति का दिन अब दूर नहीं है। देखो, पूर्व के समुद्र के पार लाल सूरज उग रहा है। उसकी लाल आभा में, लाल आलोक में सारा जग जगमग हो रहा है। वे गीत गाते थे – तोहार बाड़ी सोने के बाड़ी, तोहार बाड़ी रुपे के बाड़ी, हमार बाड़ी हे हो नक्सलबाड़ी। जी हां, मैं नक्सलबाड़ी के संघर्ष से उठे मुक्तिकामी योद्धाओं की बात कर रहा हूं, बलिदानी नौजवानों की बात कर रहा हूं। ये सच है कि उन्होंने भारतीय परिस्थितियों की विशिष्टता को नहीं समझा। लेकिन उनकी भावना पर शक करना, उन्हें चीन का दलाल बताना, उनकी देशभक्ति पर सवाल उठाना गौ-हत्या या ब्रह्म-हत्या से भी बड़ा पाप है।

मुझे तो ऐसा ही लगता है। आप कुछ भी मानने-सोचने के लिए आज़ाद हैं। इतिहास के पहिए को वापस नहीं मोड़ा जा सकता। लेकिन आज वे हज़ारों नौजवान होते तो हज़ारों के हज़ारों भारत का ओबामा बनने की संभावना लिए होते। वैसे, दिक्कत यह है कि परछाइयों के पीछे भागने के आदी हो गए हैं। किसी बाहरी उद्धारक या अवतार की बाट जोहने में लगे रहते हैं। यह नहीं देखते कि एक साधारण-सा शिक्षक ओबामा कैसे बन जाता है। ओबामा को राष्ट्रपति बनने पर हम मुदित हैं। लेकिन यह नहीं समझते कि डेमोक्रेटिक पार्टी का तंत्र नहीं होता तो ओबामा को इतना उभार नहीं मिलता।

क्या अपने यहां कोई भी ऐसी पार्टी है जिसमें ओबामा जैसे आम आदमी को उभारनेवाला आंतरिक लोकतंत्र है? कांग्रेस की तो बात ही छोड़ दीजिए, बीजेपी में किसी नए नेता की तारीफ होते ही प्रधानमंत्री की कुर्सी के दावेदार बुजुर्ग घबरा जाते हैं। सीपीएम तक गुजरात के विकास कार्यक्रमों को समझने की कोशिश में लगे नेता को निकाल बाहर करती है। नैतिकता की अलंबरदार पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके नेता अपनी प्रिया और प्रिय पुत्र के लिए धृतराष्ट्र बन जाते हैं, मातृघात कर डालते हैं। हमारी पार्टियों में आतरिक लोकतंत्र का अभाव है तो ओबामा की तलाश में लगे हमारे कॉरपोरेट जगत में कॉरपोरेट गवर्नेंस का। कंपनियों के प्रबंधन में न तो कर्मचारियों और न ही बाहरी स्वतंत्र निदेशकों की आवाज़ सुनने की व्यवस्था है। अभी तो एक सत्यम का खुलासा हुआ है, न जाने कितनों का सत्य अभी सामने आना बाकी है। राजनीतिक पार्टियों के खातों का स्वतंत्र ऑडिट हो जाए तो लेफ्ट के अलावा सारी की सारी पार्टियां सत्यम की अम्मा निकलेंगी।

ऐसे में मेरा बस इतना कहना है कि राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की स्थापना के बगैर भारत में कोई ओबामा नहीं उभर सकता। हमारे यहां आज भी ओबामा की कमी नहीं है। लेकिन एक सच्ची लोकतांत्रिक पार्टी के विकास के बिना ऐसे ओबामा अपनी-अपनी चौहद्दियों में चीखते-चिल्लाते, बाल नोंचते, पैर पटकते मिट जाने को अभिशप्त हैं। अच्छी बात यह है कि यह बात अब महज बात नहीं रही है। कहीं-कहीं, धीरे-धीरे एक सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है। देखो, रंग बदल रहा है आसमान का..

Tuesday, January 20, 2009

लिट्टे की सफाई के नाम पर तमिलों का सफाया

इस समय सारी दुनिया का ध्यान गाजापट्टी पर केन्द्रित है जहां इजरायली सेना हमास के खिलाफ जमीनी और हवाई कार्रवाई में जुटी हुई है. लेकिन आश्चर्यजनक है कि गाजापट्टी से कई गुना अधिक अमानवीय कृत्य कर रही श्रीलंकाई सेना के खिलाफ भारत के तथाकथित मानवाधिकारवादी पूरी तरह से मौन साधे हुए हैं. श्रीलंकाई एयरफोर्स और उसकी थलसेना लिट्टे के सफाये के नाम पर तमिलों का नरसंहार कर रही है. देश में तो दूर तमिल राष्ट्रवाद की कसम खानेवाले मुख्यमंत्री एम करूणानिधि का द्रविण मुनेत्र कजगम भी अपनी आंखों पर काली पट्टी बांधे हुए बैठा है. क्या गाजापट्टी के मुसलमानों का खून खून है और तमिलों का खून पानी?

लिट्टे एक आतंकवादी संगठन है जिसका प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण है. प्रभाकरण भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदास सहित हजारों हत्याओं का दोषी है. लेकिन हमास भी कोई गांधीवादी संगठन नहीं है. यदि इजरायल मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहा है तो श्रीलंका भी युद्ध विराम का उल्लंघन कर रही है जो यूरोपीयन यूनियन और स्कैण्डनेवियन देशों की मध्यस्थता में लागू हुआ था. जो लोग लिट्टे को अलगाववादी करार देकर उसके समर्थन में भारत द्वारा हस्तक्षेप का विरोध करते हैं उनका तर्क है कि हमारे यहां भी पूर्वोत्तर और कश्मीर में अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. लिट्टे का समर्थन यानी अपने यहां भी अलगाववादियों का समर्थन. तमिलों की तुलना कश्मीर के अलगाववादियों से नहीं की जा सकती. ऐसे लोग लिट्टे की वर्तमान नीति का जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं. 2001 से लिट्टे ने अलग तमिल राष्ट्र की मांग छोड़ दी थी. 2001 में रानिल विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति बनने पर लिट्टे ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी थी. लिट्टे की ही पहल पर मार्च 2002 में श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच युद्धविराम के दस्तावेज पर दस्तखत भी हुए. नार्वे समेत स्कैण्डनेवियन देशों ने श्रीलंका में बाकायदा मानिटरिंग मिशन भी चलाया. छह चक्रों की वार्ता के बीच लिट्टे ने अंतरिम स्वशासी प्राधिकरण की भी मांग की जिसे श्रीलंका सरकार ने ठुकरा दिया. उस समय अंतराष्ट्रीय समुदाय ने लिट्टे की इस मांग का स्वागत किया था. दिसंबर 2005 में ओस्लो (नार्वे) में वार्ता पुनः प्रारंभ करने की कवायद शुरू हुई. श्रीलंका सरकार ने हठ किया और लिट्टे ने वार्ता के लिए अपने इलाकों को सुरक्षित गलियारा देने की मांग की जिसके कारण बैठक असफल हो गयी. लगातार एक दूसरे की अनदेखी और वचनभंग की परिणिति अंततः युद्ध के रूप में हुई.

श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे के मुख्यालय किलिनोच्ची पर कब्जा कर लिया है. श्रीलंका में लोग अब जल्द प्रभाकरण के कब्जे में आने और लिट्टे के सफाये की उम्मीद जताने लगे हैं. भारत का क्या रवैया है यह बीते शनिवार को वीरप्पा मोईली के उस बयान से साफ हो जाता है जिसमें उन्होंने प्रभाकरण के पकड़े जाने पर उसके प्रत्यर्पण की मांग रखने की बात कही है. हम लिट्टे या प्रभाकरण का कहीं से समर्थन नहीं कर सकते. लेकिन क्या लिट्टे के उस राजनीतिक विंग को नष्ट होने दिया जाए जिसने तमिलों को श्रीलंका से बेहतर प्रशासन दिया है, उसको भी यूं ही नष्ट हो जाने दिया जाए?

भले ही लिट्टे का इतिहास एक आतंकवादी संगठन का रहा हो पर उत्तरी श्रीलंका में लिट्टे ने अपने कब्जेवाले इलाकों में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर जिस तरह से सुशासन स्थापित किया है उससे अंतरराष्ट्रीय वार्ताकार भी उसके आंतरिक स्वशासन की मांग को जायज ठहराते हैं. उनकी यह मांग कितनी जायज है यह उनकी प्रशासनिक क्षमता से सिद्ध होता है. तमिल क्षेत्र में बाकायदा लिट्टे सरकार फौजदारी और दीवानी अदालतें संचालित करती है. तमिल ईलम के न्यायिक प्रणाली में जिल्ला, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था है. अपील के लिए इनके पास दो उच्च न्यायालय हैं. इन न्यायालयों में बलात्कार, हत्या, दंगा और लूटपाट जैसे मामलों के मुकदमें चलाए जाते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के पास समग्र तमिल ईलम का दायरा है. लिट्टे समय समय पर विधिक प्रकाशन और उनका संशोधन भी करता है. कानून का शासन बनाये रखने के लिए 1991 में तमिल ईलम पुलिस की स्थापना की गयी. पुलिस और कानून के कारण तमिल क्षेत्र में शेष श्रीलंका की तुलना में कानून का राज बेहतर है. आंतरिक कर वसूली से जमा राजस्व से शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं का संचालन होता है. लिट्टे ने तमिल नागरिकों के अधिकारों के लिए उनका अपना मानवाधिकार आयोग बना रखा है. क्षेत्र के विकास के लिए 2004 में प्लानिंग एण्ड डेवलपमेन्ट सेक्रेटेरिएट का भी गठन किया गया है. तमिल राज्य की सीमा पर सीमाशुल्क वसूलने के लिए लिट्टे का अपना कस्टम विभाग है. तमिल रेडियो सेवा वाईस आफ टाईगर्स और टेलीविजन सेवा नेशनल तमिल ईलम सर्विसेज के नाम से प्रसारित की जाती हैं. लिट्टे के अपने बैंक का नाम 'बैंक आफ तमिल ईलम' है जो श्रीलंका की किसी बैंक की तुलना में बेहतर ब्याज देती है. स्त्रियों को तमिल ईलम बराबरी का सम्मान देता है. उनकी समतापरक नीति के चलते ही लिट्टे की आतंकी गतिविधियों में भी महिलाओं की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी रही है. अनुमान है कि अब तक 4000 तमिल महिलाएं तमिल ईलम के लिए अपनी कुर्बानी दे चुकी हैं. लिट्टे पूरी तरह से सेकुलर सिद्धांतों को माननेवाला संगठन है और उसकी कमाण्डरों की सूची में कर्नल चार्ल्स, कैप्टन मिलर, कर्नल विक्टर, कर्नल अकबर और कर्नल निजाम जैसे नाम सामान्य हैं. लिट्टे भारत और अमेरिका समेत 31 देशों में प्रतिबंधित संगठन है, बावजूद इसके कनाडा, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली और नार्वे जैसे देशों से उसके राजनयिक संबंध हैं. 2002 में सीजफायर के बाद विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेन्ट बैंक समेत संयुक्त राष्ट्र की तमाम एजंसियां तमिल ईलम के राजनीतिक तंत्र के साथ सतत संपर्क में रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान के विशेष दूत डैनी के डेविस और यूनाईटेड नेशंस हाई कमिश्नर फार रिफ्यूजिज के एंटानियों गटरेस भी लिट्टे पदाधिकारियों से सीधी बैठकें कर चुके हैं.

भारत के मानवाधिकारवादियों ने 1983 में सिंहलियों द्वारा तमिलों के क्रूर नरसंहार का विरोध भी कर चुके हैं. 1983 में सिंहलियों ने कम से कम 4000 तमिलों की क्रूर हत्या कर दी थी. तमिलों की संपत्ति खाक कर दी गयी थी और तमिल स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुए थे. इसके बाद ही लिट्टे एक आक्रामक संगठन हो गया जबकि इसकी स्थापना इसके बहुत पहले 1972 में ही हो चुकी थी. 11 वर्षों तक लिट्टे हिंसक नहीं था लेकिन उसे हिंसा के मार्ग पर सिंहलियों ने धकेला. 2001 से 2005 के बीच लिट्टे ने नागरिक अधिकार प्राप्त करने के लिए सारे प्रयास किये जो कि वैश्विक मानदंड के अनुकूल थे. लेकिन श्रीलंका सरकार के हठ से वार्ता विफल हो गयी और अब लिट्टे की सफाई के नाम पर श्रीलंका तमिलों की सफाई कर रहा है. पिछले एक साल से तमिल जनता भारत सरकार से गुहार लगा रही है कि उनकी रक्षी की जाए. लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी कोरे बयान देने के अलावा कुछ नहीं कर पाये हैं. यहां तक कि केन्द्र सरकार में हिस्सेदार होने के बावजूद वे केन्द्र सरकार पर तमिलों की रक्षा के लिए भी कोई दबाव नहीं बना पाये हैं. करूणानिधि ने अक्टूबर में कहा था कि अगर भारत सरकार तमिलों की रक्षा के लिए कोई नीति नहीं बनाती है तो उनके सांसद इस्तीफा दे देंगे. उनके पास डीएमके सांसदों के इस्तीफे लिखकर पड़े हुए हैं फिर भी वे श्रीलंकाई सेना की आक्रामकता के खिलाफ मुखर क्यों नहीं है?

भारत भले ही श्रीलंका को सैनिक सहयोग देता हो लेकिन श्रीलंका के वर्तमान प्रमुख भारत की गिनती श्रीलंका के मित्र राष्ट्रों में नहीं करते. राजपक्षे बार-बार यह कह चुके हैं कि यदि भारत सरकार लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में उनकी मदद नहीं करेगा तो वे चीन या पाकिस्तान से मदद ले लेंगे. श्रीलंका ने चीन से भारी निवेश प्राप्त किया है. ईरान और सऊदी अरब से दोस्ती करके तेल हासिल किया है तो पाकिस्तान से हथियार. अब वक्त आ गया है कि भारत सरकार इस मुद्दे पर सख्त रवैया अपनाये. चीन श्रीलंका को उसी तरह अपनी ओर मिला रहा है जैसे उसने म्यामांर को अपनी तरफ मिलाया है. म्यामांर में कोको आईलैण्ड में जिस दिन चीनी सैन्य प्रतिष्ठान स्थापित हुआ उसी दिन से पूर्वी तटों पर स्थित हमारे सैन्य प्रतिष्ठान चीनी निगरानी की जद में आ गये हैं. अगर चीन श्रीलंका में अपना बेस बनाने में कामयाब हो जाता है तो कलपक्कम रियेक्टर, कुडनकुलम पावर रियेक्टर और केरल स्थित अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र को अपनी मानिटरिंग की जद में शामिल कर लेगा. चीन वहां तभी हावी हो सकता है जब लिट्टे के टाईगर बिल्ली बन जाएं. आज की परिस्थितियों में श्रीलंका में भारत कमजोर है जबकि चीन और पाकिस्तान हावी हो रहे हैं. यह सही मौका है जब भारत को श्रीलंका में ज्यादा व्यावहारिक रणनीति अपनानी चाहिए. मंदी की मार झेल रहा चीन इस समय बहुत सोच विचार के बाद अपने डालर खर्च कर रहा है और पाकिस्तान अपने ही बंटवारे के संकट से जूझ रहा है. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी मदद की गुहार पर भी चीन ने कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और श्रीलंका में भी वह कोई प्रयोग नहीं करना चाहेगा. यूरोपीय और स्कैण्डनेवियन देश मानवाधिकारों के हनन के चलते आर्थिक मदद देने से इंकार कर चुके हैं. भारत को चाहिए समय रहते श्रीलंका में शांति सेना भेजने की गलती स्वीकार करे और नये सिरे से रणनीति को निर्धारित करे.

Monday, January 19, 2009

नरेन्द्र मोदी जैसा नेता......प्रधान मंत्री ?

ऐसा क्यो है कि सारे लोग आप (नरेन्द्र मोदी) की ओर एक चुम्बकीय आकर्षण से खिचे चले आ रहे है....ये शब्द सुनील भरती मित्तल के है, जो इस बात का संकेत है कि लोग किस कदर मोदी के व्यक्तित्व से प्रभावित है । अगर ये कहे गए शब्द सिर्फ़ कारपोरेट हित और पूंजी की आवक से ही सम्बंधित है तो यहाँ ये कहना जरूर लाज़मी हो जाता है कि शायद ही देश का ऐसा कोई राज्य होगा जो इस दिशा में अग्रसर नही है। स्पस्ट रूप से कहा जाए तो बात सिर्फ़ इस दिशा में बढ़ने की नही है बल्कि संतुलन बनाये रखने की है जिसमे मोदी सफल हुए है। यदि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में कारपोरेट सेक्टर को कुछ कड़वे अनुभव का सामना करना भी पड़ा तो वो सम्बंधित राज्यों की अपनी सम्स्यावो की वजह से । जबकि मोदी ने हर बार फैसला लिया और संतुलन भी बनाये रखा । फिर क्यो २००२ का हर बार रोना रोया जाता है।

इतिहास साक्षी है कि कलिंग युद्ध , जिसमे लगभग एक लाख लोग मारे गए ,अशोक को बिल्कुल बदल कर रख दिया जो ९९वे भाइयो का वध करके राजा बना था , आख़िर एक युद्ध ने उसे महानता कि ओर अग्रसर किया। शेरशाह, जिसके जीवन का सबसे बड़ा कलंक रायसेन का अभियान था , पर क्या इस वजह से उसके लोकहितकारी छबी या फिर उसके कुशल राजनीतिज्ञ होने पर सवाल उठाया जा सकता है? अकबर, जिस पर इतिहास गर्व करता है क्या अहमदनगर का अभियान उसके शासन पर धब्बा नही है? बावजूद इसके अकबर को सफल शासक के रूप में ही जाना जाता है, तो फिर मोदी पर बार बार सवाल क्यो?

लोकतंत्र का मतलब ये कतई नही होना चाहिए जिसमे कई आवाजे मिलकर एक बड़े सच को झूठा साबित करने में व्यस्त हो जाए ।महानता कभी कोरी नही होती.... तो मोदी जैसा नेता प्रधानमंत्री बने ..इस पर आपति क्यो?

Thursday, January 15, 2009

मीडिया की भी ग़लती

सरकार मीडिया पर पाबन्दी की बात करती है ,जो निश्चित रूप से जायज नहीं है लेकिन सरकार से क्या सोचकर इस तरह का कदम उठाया है यह जानना भी तो हम मीडिया वालों का कर्तव्य बनता है तो इसी कड़ी में सबसे पहेले हमे अपने गिरेबान में झाँकने की जरुरत है क्यों की आज देश में ऐसे पत्रकारों की संख्या कम नहीं है जिन्होंने मीडिया को कमाई का एक अड्डा बना लिया है,चाहे बह कमाई का तरीका जायज हो या नहीं,चाहे उससे मीडिया की आबरू पर बनती हो या नहीं !!!अब जब मीडिया पर बन आई तो हमारी बोलती बंद हो गयी लेकिन हमने भी तो कुछ ऐसे कदम उठाये है जो इतने जरुरी नहीं थे,या फिर देश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ थे! मुंबई का ताजा काण्ड हो या किसी बेगुनाहों को स्टिंग आपरेशन में फ़साने का चक्कर मीडिया नंबर वन है!! न्यूज़ चैनल आज ऐसे नजर आते है जैसे व्यस्कों का चैनल हो,चूमाचाटी के सिवा कुछ इनके पास नहीं है !!कही बम फटा तो इनके यहाँ केक कटा...TRP बढ़ जायेगी..पैसे लेकर सरकार की तारीफ करवा लो या बुराई!! आज अख़बारों में आप एक बिज्ञापन दे दो फिर सारे पत्रकार आपके है..आपके दोस्त है चाहे आप डान्कू क्यों हो !!अब इस तरह के कानून बनाकर सरकार हम पर कुछ इस तरह से ही तो लगाम कसना चाहती है जो हमे उचित नहीं लगता..लेकिन क्या करे सरकार को भी तो हमारा हर कदम जायज नहीं लगता इसलिए सबसे पहेले जरुरत है तो मीडिया के सिद्धांतों पर चलने की हम सब जानते है की यह हालत कुछ ही पत्रकारों की है बांकी सब अच्छे है लेकिन क्या करे साब ,एक मछली सारे तालाब को गन्दा कर देती है,सो अब बारी है तलब को साफ़ करने की...चलिए अभी से इसी काम में लग जाते है !!!

Wednesday, January 14, 2009

टी आर पी की बम्पर फसल

मुंबई में हुए आतंकवादी हमले को खबरिया चैनलों ने 60-घंटे के लाइव प्रसारण के दौरान जमकर भुनाया। अपने प्रसारण को सबसे अलग बनाने के फेर में संवेदनहीनता की सारी हदों को पार करते हुए वह सब भी किया जो आतंकवादियों के पक्ष में ही गया। इसी वजह से आतंकवादियों से लोहा ले रहे सुरक्षाकर्मियों को अपने ऑपरेशन को अंजाम तक पहुंचाने में मुश्किलें भी आईं। मीडिया के इस गैर-जिम्मेदराना रवैए की हर-तरफ आलोचना होने लगी तो कई समाचार चैनलों के संपादक अलग-अलग समाचार पत्रों में लेख लिखकर अपनी पीठ खुद थपथपाने लगे और 60-घंटे के लाइव प्रसारण को ऐतिहासिक तक बता डाला। इन संपादकों ने कहा कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी समझते हुए आतंकी कार्रवाई का सजीव प्रसारण किया ना कि टीआरपी के लोभ में।




समाचार चैनलों के ये कर्ता-धर्ता कितना भी सफाई दे लें लेकिन इस बात से तो हर कोई वाकिफ है कि खबरिया चैनलों के बीच तेजी से बढ़ी गलाकाट प्रतिस्पर्धा की वजह से कई गलतियां बार-बार दुहराई जा रही हैं। यह गलाकाट प्रतिस्पर्धा है किसी भी तरह ज्यादा से ज्यादा टीआरपी हासिल करने की। क्योंकि इसी पर समाचार चैनलों की आमदनी निर्भर करती है। टीआरपी और आमदनी का सीधा सा संबंध यह है कि विज्ञापनदाताओं के लिए किसी भी चैनल की दर्शक संख्या जानने का और कोई दूसरा जरिया नहीं है। इसी टीआरपी के आधार पर चैनलों को विज्ञापन मिलता है। हालांकि, टीआरपी मापने के तौर-तरीके पर भी सवालिया निशान लगते रहे हैं, जो तार्किक भी हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आखिर महज सात हजार बक्सों और वो भी सिर्फ महानगरों में लगाकर पूरे देश के टेलीविजन दर्शकों के मिजाज का अंदाजा कैसे लगाया जा सकता है। पर दूसरा रास्ता ना होने की वजह से धंधेबाज इसी के जरिए अपना-अपना धंधा चमकाने में मशगूल हैं।




मुंबई आतंकी हमले के दौरान 60-घंटे तक चले ऑपरेशन कवर करने को भले ही समाचार चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोग अपनी जिम्मेदारी बता रहे हैं और इस कवरेज पर अपनी पीठ थपथपा रहे हों लेकिन सच यही है कि इस दौरान खबरिया चैनलों की टीआरपी बढ़ गई। जाहिर है कि इस बढ़ी टीआरपी को भुनाने के लिए इन खबरिया चैनलों के विज्ञापन दर में बढ़ोतरी होना तय है और फिर इनकी कमाई में ईजाफा होना भी निश्चित है।




बहरहाल, टीआरपी नापने वाली एजेंसी टैम यानि टेलीविजन ऑडिएंस मेजरमेंट के आंकड़े बता रहे हैं कि 26-30 नवंबर के बीच समाचार चैनलों के संयुक्त दर्शक संख्या में तकरीबन एक 130 फीसदी का ईजाफा हुआ। यानि खबरिया चैनल देखने वालों की संख्या दुगना से भी ज्यादा हो गई। जबकि मनोरंजन चैनलों के दर्शकों की संख्या में जबर्दस्त कमी आई। टैम के मुताबिक कुल दर्शकों में से 22.4 प्रतिशत दर्शक इन चार दिनों के दौरान हिंदी खबरिया चैनल देखते रहे। जब से टीआरपी नापने की व्यवस्था भारत में हुई तब से अब तक इतनी बड़ी संख्या में लोगों ने हिंदी समाचार चैनलों को कभी नहीं देखा। इससे साफ है कि आतंकवाद की यह घटना मीडिया को एक फार्मूला दे गई और तमाम आलोचनाओं के बावजूद भविष्य में भी मीडिया ऐसी घटनाओं को लाइव कवरेज के दौरान बेचते हुए दिखे तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि किसी भी कीमत पर ज्यादा से ज्यादा टीआरपी बटोरना और फिर अपना बिजनेस बढ़ाना ही प्राथमिकता बन जाएगी तो कम से कम वहां तो पेशेवर जिम्मेदारी की भी अपेक्षा करना ठीक नहीं है। इन चार दिनों के दौरान खबरिया चैनल जमकर आतंक की फसल काट रहे थे वहीं दूसरे सेगमेंट के चैनलों को इसका नुकसान उठाना पड़ा। इस दरम्यान मनोरंजन चैनलों का कुल दर्शकों में 19.5 फीसदी हिस्सा रहा जबकि हिंदी फिल्म दिखाने वाले चैनलों को 15.1 प्रतिशत दर्शक मिले।
खबरिया चैनलों में ऊंचे ओहदों पर बैठे लोगों के शब्दों में कहें तो 26 से 30 नवंबर मीडिया कवरेज के चार ऐतिहासिक दिन थे। मीडिया कवरेज के इन ऐतिहासिक दिनों की बदौलत 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में हिंदी खबरिया चैनलों के पास कुल दर्शकों में से 16।1 फीसदी थे। जबकि इसके पहले के चार सप्ताहों के आंकडे़ देखें तो यह पता चलता है कि इस दौरान हिंदी समाचार चैनलों को औसतन हर हफ्ते 6.7 प्रतिशत लोग देखते थे। इससे यह बिल्कुल साफ हो जा रहा है कि सही मायने में इस आतंकवादी हमले ने खबरिया चैनलों के लिए संजीवनी का काम किया। दर्शकों की संख्या दुगना से भी ज्यादा हो जाना इस बात की गवाही दे रहा है।




इस दरम्यान सबसे ज्यादा फायदा आज-तक को हुआ। इस घटना से पहले समाचार देखने वाले दर्शकों में से 17 फीसद लोग इस चैनल को देखते थे। वहीं इस घटना के दौरान आज-तक को 23 फीसद लोगों ने देखा। इसके अलावा जी न्यूज के दर्शकों की संख्या भी 8 फीसद से बढ़कर 11 फीसद हो गई। उस सप्ताह से पहले तक कुल दर्शकों की संख्या में स्टार न्यूज की हिस्सेदारी 15 फीसद थी। इस चैनल को भी 60-घंटे तक लाइव कवरेज का फायदा मिला और दर्शकों की संख्या में एक फीसदी का ईजाफा हुआ और इसकी हिस्सेदारी उस सप्ताह में 16 फीसद रही। जबकि 16 फीसद के साथ इंडिया-टीवी, 11 फीसद के साथ आईबीएन-सेवन और 8 फीसद के साथ चल रहे एनडीटीवी के दर्शक संख्या में इस आतंकी घटना के लाइव प्रसारण के दौरान भी कोई बढ़ोतरी नहीं हुई।




आतंकवादी हमले के लाइव कवरेज की फसल काटने के मामले में गंभीरता का लबादा ओढ़े रहने का ढोंग रचते रहने वाले अंग्रेजी खबरिया चैनल भी पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी समाचार चैनलों में इस दौरान सबसे ज्यादा फायदा एनडीटीवी-24x7 को हुआ। आतंकी हमले से ठीक पहले वाले सप्ताह तक इस चैनल के पास अंग्रेजी समाचार चैनल देखने वाले 25 प्रतिशत दर्शक थे, जो आतंक के 60-घंटे के लाइव कवरेज वाले सप्ताह में बढ़कर 30 फीसदी हो गए। दर्शकों में हिस्सेदारी के मामले में टाइम्स ऑफ इंडिया समूह के अंग्रेजी खबरिया चैनल टाइम्स-नाउ का शेयर भी 29 नवंबर को समाप्त हुए सप्ताह में 23 फीसदी से बढ़कर 28 प्रतिशत हो गया। इस दौरान न्यूज-एक्स के दर्शकों की संख्या में भी मामूली बढ़ोतरी दर्ज की गई। जबकि सीएनएन-आईबीएन और हेडलाइंस-टुडे के दर्शकों की संख्या में कमी दर्ज की गई।
आतंकवादी हमलों के दौरान इसके व्यावसायिक असर को लेकर हिंदी और अंग्रेजी के बिजनेस चैनलों पर भी जमकर चर्चा हो रही थी। यहां जो व्यावसायिक कयासबाजी चल रही थी वह कितना सही साबित होगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा लेकिन इस दौरान इन चैनलों की टीआरपी जरूर बढ़ गई। हिंदी के बिजनेस समाचारों वाले चैनलों की टीआरपी में संयुक्त तौर पर 25 फीसदी,जबकि अंग्रेजी के बिजनेस खबरों वाले चैनलों की टीआरपी में तकरीबन 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई।

क्या कश्मीर आन्दोलन कश्मीरियत के लिए है ?

किसी आंदोलन का आधार क्या है? पहचान की एक संयुक्त बुनियाद, सांस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी या पारंपरिक समता की नींव। लेकिन, अगर कोई जम्मू-कश्मीर और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बीच इन्हीं आधारों पर (जैसा अलगाववादी कहते हैं-कश्मीर आंदोलन) समानता की बात करता हैं,तो लोगों को बहुत सी गलत सूचनाएं मिलेंगी। दरअसल, 'कश्मीर' में अलगाववादी (कश्मीर का मतलब सिर्फ कश्मीर,जिसमें जम्मू,लद्दाख का हिस्सा शामिल नहीं होता) कश्मीरियत की बात करते हैं,और इसे ही अपने आजादी के आंदोलन का आधार बताते हैं।

लेकिन,इस मसले पर आगे बात करने से पहले यह जानना जरुरी है कि कश्मीरियत का मतलब क्या है? दरअसल, महाराष्ट्रवाद,पंजाबवाद और तमिलवाद की तरह कश्मीरियत भी एक छोटे से हिस्से के लोगों की साझी सामाजिक जागरुकता और साझा सांस्कृतिक मूल्य है। अलगाववादियों और कश्मीर के स्वंयभू रक्षकों के मुताबिक कश्मीर घाटी में रहने वाले हिन्दू और मुसलमानों की यह साझा विरासत है। लेकिन, सचाई ये है कि जम्मू,लद्दाख और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के पूरे हिस्से और घाटी के बीच कोई सांस्कृतिक समानता नहीं है। तर्क के आधार पर फिर यह कश्मीरियत से मेल नहीं खाता। दरअसल, सचाई ये है कि जम्मू और कश्मीर की संस्कृति में कई भाषाओं और पंरपराओं को मेल है, और कश्मीरियत इसकी विशाल सांस्कृतिक धरोहर का छोटा सा हिस्सा है।

अक्सर, खासकर हाल के वक्त में, अलगाववादी नेता या महबूबा मुफ्ती को हमने कई बार मुजफ्फराबाद, दूसरे शब्दों में सीमा पार के कश्मीर, की तरफ मार्च का आह्वान करते सुना है। लेकिन, हकीकत ये है कि इस पार और उस पार के कश्मीर में कोई सांस्कृतिक, भाषायी और पारंपरिक समानता नहीं है। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में रहने वाले मुस्लिम समुदाय का बड़ा तबका रिवाज और संस्कृति के हिसाब से उत्तरी पंजाब और जम्मू के लोगों के ज्यादा निकट है। जिनमें अब्बासी, मलिक, अंसारी, मुगल, गुज्जर, जाट, राजपूत, कुरैशी और पश्तून जैसी जातियां शामिल हैं। संयोगवश में इनमें से कई जातियां पीओके में भी हैं। पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के अधिकृत भाषा उर्दु है, लेकिन ये केवल कुछ लोग ही बोलते हैं। वहां ज्यादातर लोग पहाड़ी बोलते हैं,जिसका कश्मीर से वास्ता नहीं है। पहाड़ी वास्तव में डोगरी से काफी मिलती जुलती है। पहाड़ी और डोगरी भाषाएं जम्मू के कई हिस्से में बोली जाती है।

हकीकत में, दोनों तरफ के कश्मीर में सिर्फ एक समानता है। वो है धर्म की। दोनों तरफ बड़ी तादाद में मुस्लिम रहते हैं। तो क्या यह पूरी कवायद, पूरा उबाल धार्मिक वजह से है? इसका मतलब कश्मीरियत की आवाज,जो अक्सर कश्मीर की आज़ादी का नारा बुलंद करने वाले लगाते हैं,वो महज एक सांप्रदायिक आंदोलन का छद्म आवरण यानी ढकने के लिए है। और अगर ये सांप्रदायिक नहीं है, तो क्यों कश्मीरियत की साझा विरासत का अहम हिस्सा पांच लाख से ज्यादा कश्मीरी पंडित इस विचार के साथ नहीं हैं, और दर दर की ठोकर खा रहे हैं। विडंबना ये है कि भाषा,रहन-सहन-खान पान और सांस्कृतिक नज़रिए से कश्मीरियत की विचारधारा में जो लोग साझा रुप में भागीदार हैं,वो कश्मीरी पंडित ही अब घाटी से दूर हैं।

पाकिस्तानी आतंकवाद के बाद राजनितिक आतंकवाद

इंदिरा गांधी होतीं तो पाकिस्तान के आतंकवादी कैपों पर 28 नवबंर को ही हमला बोल देतीं। मुंबई हमलों में आतंवादियों को मार गिराये जाने की खबर के साथ ही दुनिया तब पाकिस्तान के खिलाफ भारत की सैनिक कार्रवाई की खबर सुनता। लेकिन देश में लीडरशीप है नहीं तो घुडकी का अंदाज भारत की कूटनीति का हिस्सा बना हुआ है। समूची कूटनीति का आधार देश के भीतर बार बार यही संकेत दे रहा है कि चुनाव होने है...उससे पहले सरकार बांह चढाकर आम वोटरों की भावनाओं में राष्ट्रप्रेम का चुनावी संगीत भरना चाहती है...समूची कवायद इसी को लेकर हो रही है।


करगिल के जरिए जो काम एनडीए सरकार कर सत्ता में बनी रही, वैसा ही कुछ यूपीए सरकार भी करके सत्ता में बने रहने के उपाय ही करना चाह रही है। दरअसल, यह सारी सोच आम जनता के बीच चर्चाओं में जमकर घुमड़ रही है। पहली बार देशहित या राष्ट्रप्रेम को भी चुनावी रणनीति में लपेट कर कूटनीति का जो खेल खेला जा रहा है, उससे यह तो साफ लगने लगा है कि राजनीति अपने सत्ता प्रेम को पारदर्शी बनाने से भी नही कतराती। और जनता हाथों में हाथ थाम कर या मोमबत्ती जलाकर ही अपने आक्रोष को शांत करना चाहती है। टेलीविजन स्क्रीन पर वाकई रंग-रोगन कर तीखी बहस के जरिए देश पर हमले का जबाब देने को उतारु है।


जाहिर है इन सभी के पेट भरे हुये है और सुरक्षित समाज में सत्ता के करीब रहने का सुकून हर किसी ने पाला है तो युद्दोन्माद की स्थिति बरकरार रख जीने का सुकून सभी चाहने लगे हैं। सरकार से इतर बाकि राजनीतिक दल क्या कर रहे हैं, यह कहीं ज्यादा त्रासदी का वक्त है। जो आरएसएस
1961 में चीन युद्द के दौरान जनता और सेना का मनोबल बढाने के लिये समाज के भीतर और सीमा पर सैनिकों के साथ खड़ा हो गया था, वह अब इस मौके पर आडवाणी की ताजपोशी की रणनीति बनाने में जुटा है। चीन युद्द के दौर में भारतीय सैनिकों के पास गर्म जुराबे तक नहीं थीं। हाथ में डंडे और दुनाली से आगे कोई हथियार नहीं था। उस वक्त आरएसएस गर्म कपड़े सैनिको में बांटा करता था। समाजवादी और लोहियावादी नेता नेहरु-मेनन की नीतियो के खिलाफ खुले रुप में खड़े हो गये थे। मेनन को तभी नेहरु ने हटाया भी। चीन को लेकर उस दौर में समाजवादी-लोहियावादी नेहरु की वैदेशिक नीति के खिलाफ थे। उसी विरोध के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने वैदेशिक नीति में अंतर लाया। वहीं अब खुद को समाजवादी-लोहियावादी कहने वाले सरकार से राजनीतिक सौदेबाजी का हथियार भी राष्ट्रहित को बनाने से नही चूक रहे।


हां, अभी के वामपंथियो को लेकर अच्छा लग सकता है कि वह किसी भूमिका में नहीं है । क्योंकि चीन युद्द के दौरान वामपंथी सीमा पर रहने वाले लोगो को राहत देने के लिये पार्टी सदस्य बनाकर कार्ड होल्डर बना रहे थे और कह रहे थे जब चीनी सैनिक आयें तो उन्हे यह लाल कार्ड दिखा दें, जिससे वामपंथी होने के तमगे पर उन्हे कोई कुछ नही कहेगा। असल में पाकिस्तान को लेकर कौन सी कूटनीति अब अपनायी जा रही है, जिसमें अमेरिका के बगैर भारत कुछ कर नही सकता और जबतक चीन पाकिस्तान के साथ खडा है अमेरिका कुछ कह नहीं सकता ।


26 नबंबर 2008 यानी मुबंई हमलो के बाद के सवा महिनों में अमेरिका और चीन की सक्रियता भी गौर करने वाली है । हमलों के तुरंत बाद अमेरिकी विदेश मंत्री कोडलिजा राइस ने दिल्ली होते हुये इस्लामाबाद की यात्रा की । बचते-बचाते जिस तरह के बयान राइस ने दिये, उसमें दिल्ली यात्रा के दौरान भारत खुश हो सकता है और इस्लामाबाद यात्रा के दौरान पाकिस्तान को थर्ड पार्टी के होने की गांरटी मिल सकती है। यानी अमेरिकी हरी झंडी के बगैर भारत कुछ नहीं करेगा उसके संकेत राइस ने इस्लामाबाद यात्रा के दौरान ही दे दिया । लेकिन अमेरिकी कूटनीति की जरुरत पाकिस्तान है, इसलिये राइस के बाद अमेरिकी मंत्रियो और अधिकारियो की यात्राओं का सिलसिला थमा नहीं। जान मैकेन भी इस्लामाबाद पहुचे और सुरक्षा अधिकारियो के लाव-लश्कर के अलावा अमेरिकी रक्षा टीम ने पाकिस्तान का दौरा किया। हर यात्रा के बाद यही रिपोर्ट अमेरिकी मिडिया में निकल कर आयी कि भारत और पाकिस्तान के बीच सैनिक कार्रवाई की छोटी सी भी शुरुआत अमेरिका के 9-11 के बाद की पहल को खत्म कर देगी । जो अफगानिस्तान के भीतर और बाहर पाकिस्तान के सहयोग से नाटो फौजें कर रही हैं । पाकिस्तान के लिये भी कूटनीतिक सौदेबाजी में अमेरिका की कमजोरी से लाभ उठाना है। और उसने उठाया भी। भारत किसी तरह की सैनिक कार्रवाई नहीं करेगा । सिर्फ घुडकी देते रहेगा...तभी अल-कायदा और कट्टरपंथी कबिलायियों के खिलाफ पाकिस्तान की फौज नाटो को मदद जारी रख सकती है। लेकिन पाकिस्तान की रमनीति यहीं नहीं रुकी । जिन कबिलायी गुटों ने पिछले तीन महिनों से सीजफायर किया हुआ था, उन्होंने दुबारा युद्द का ऐलान कर दिया। पाकिस्तान के दौरे पर पहुंचे अमेरिकी सेक्रेटरी आफ स्टेट रिचर्ड बाउचर के सामने पाकिस्तान ने इससे पैदा होने वाली परेशानी को रखा।


बलूचिस्तान में सक्रिय विद्रोही कबिलाइयों को लेकर 2 दिंसबर को पहली बार पाकिस्तान के सेना प्रमुख असफाक कियानी ने यही कहा था कि कबिलाईयो के साथ तो बातचीत कर उन्हे समझाया जा सकता है लेकिन भारत ने किसी तरह की सैनिक पहल की तो पाकिस्तान की एक लाख फौज तत्काल एलओसी पर तैनात कर दी जायेगी । बाउचर ने पाकिस्तान की पीठ सहलायी और राष्ट्रपति जरदारी ने यह कहने में कोई देर नहीं लगायी कि रिचर्ड बाउचर की वजह से अमेरिका के साथ पाकिस्तान के द्दिपक्षीय संबंध खासे मजबूत और विकसित हुये है, इसलिये हिलाल-ए-कायदे-आजम सम्मान बाउचर को दिया जायेगा । महत्वपूर्ण है कि यह वही वाउचर हैं, जिन्हे अमेरिका के साथ भारत के परमाणु डील होने के बाद पाकिस्तान में ही यह कहते हुये लताडा गया था कि वह पाकिस्तान के हित को अनदेखा कर भारत के पक्ष में ही रिपोर्ट तैयार करते हैं। वहीं इस दौर में भारत और अमेरिका किस रुप में नजर आये इसका नजारा अबतक की सबसे बडी हथियारो की डील के जरीये सामने आया । नौसेना के लिये भारत ने अमेरिकी प्राइवेट कंपनी के साथ आठ मेरीटाइम एयरक्राफ्रट खरीदेने पर हस्ताक्षर किये । 600 नाउटीकल मील तक मार करने वाले इस एयरक्राफ्रट की पहली डिलीवरी चार साल बाद होगी और सभी एयरक्राफ्रट 2015-16 तक मिलेगे । लेकिन महत्वपूर्ण यह नही है , ज्यादा बड़ा मामला आर्थिक मंदी के दौर में इस सौदे की रकम है जो 2.1 बिलियन डालर की है । यानी दस हजार करोड़ की रकम का मामला है। ये रकम चार किस्तों में भारत देगा। अमेरिका के लिये कूटनीति का यही पैमाना भारत और पाकिस्तान को अलग करता है। पाकिस्तान दुनिया के पहले तीन देशो में आता है, जिनका सैनिक बजट सबसे ज्यादा है । जीडीपी का करीब साढे सात फिसदी । लेकिन पाकिस्तान के हथियारों की पूंजी उसके अपने विकास से नहीं जुड़ती बल्कि अमेरिका-चीन और अरब देशो के साथ कभी रणनीति तो कभी कूटनीतिक आधार पर पूंजी समेटने के आधार पर जुड़ती है। वहीं भारत का हथियारो पर खर्च उसके अपने विकसित होते पूंजीवादी परिवेश से निकलता है।


सरल शब्दो में अपनी कमाई का हिस्सा भारत को हथियार पर लगाना है और पाकिस्तान को कमाई के लिये हथियार खरीदने की स्थिति बनानी है। अमेरिका के साथ चीन की सक्रियता भी मुबंई हमलो के बाद समझनी होगी । चीन के उप विदेश मंत्री हे याफी दिल्ली पहुंचने से पहले इस्लामाबाद में थे । दिल्ली में उन्होंने पाकिस्तान को सौंपे गये सबूतो को लेकर या आतंकवादी हिंसा को लेकर कुछ भी कहने से साफ इंकार कर दिया । सिर्फ आर्थिक सुधार के मद्देनजर दोनो देशो के संबंधो पर चर्चा की । लेकिन इस्लामाबाद पहुंचते ही याफी ने साफ कहा कि पाकिस्तान खुद दोहरे आतंकवाद से जुझ रहा है,अल-कायदा और कट्टरपंथियो की हिंसा से। इसलिये दुनिया को पहले पाकिस्तान को आतंकवाद से मुक्ति दिलाने का प्रयास करना चाहिये। जाहिर है चीन की कूटनीति भारत को उस दिशा में ले जाना चाहती है जहां पाकिस्तान अमेरिका के करीब आये और अमेरिक की कूटनीति भारत को चीन से दूर ले जाती है। इन परिस्थितयों में भारत आतंकवाद के घाव से कैसे बचेगा और आतंकवाद से सही ज्यादा खतरनाक जब देश की संसदीय व्यवस्था में सत्ता का जुगाड़ हो जाये तो पहले किस आतंकवाद से कैसे लड़ा जाये पाकिस्तानी आतंकवाद या देशी राजनीतिक आतंकवाद से ।

Monday, January 12, 2009

चाहत

उसकी अंखियों से बरसती चाहत को
मैंने हर पल महसूस किया
फिर भी शब्दों के अभाव में
उसने न कभी इज़हार किया
मैं इंतज़ार karta raha उस पल का
जब चाहत को शब्द मिलेंगे
उस पल के इंतज़ार में
एक ज़माना बीत गया
अब उम्र के इस मोड़ पर
क्या तुम्हारी आंखों में
उसी चाहत की बानगी दिखेगी
अब किसका इंतज़ार है तुम्हें
इज़हार के पल कहीं बीत न जाएं
क्या अब तक शब्द जुटा नही पाये
या खामोश मोहब्बत का इज़हार
मेरी कब्र पर करना चाहते हो
देखो मुझे पता है तुम्हारी चाहत का
एक बार तो इज़हार करो
कहीं दम निकल न जाए
इसी इंतज़ार में

न्यूज़ चैनलों को आत्ममंथन की जरूरत

प्रिय एनबीए, मुंबई हमले के हमारे कवरेज की जमकर खबर ली गई है। हमारी जो कड़ी आलोचना हुई है उसे लेकर हम सब उलझन में हैं। हमें समझ में ही नहीं आ रहा है कि इतना शोरगुल क्यों मचाया जा रहा है। हमने हमले का प्रसारण वैसे ही किया जैसे हम इतने बरसों से अन्य घटनाओं का करते आ रहे हैं। साठ घंटे के नाटकीय घटनाक्रम के हर मिनट हम वहां अपनी जान जोखिम में डालकर, बिना नींद या विश्राम के डटे रहे। इस बार वास्तव में हमें लगा कि हम राष्ट्रीय कर्तव्य निभा रहे हैं। इसके लिए मिलने वाली तालियों की आवाज कहां है? हमें सराहना के बजाय आलोचना मिल रही है, यह हजम होना कठिन है।

हमारे दर्शकों ने राष्ट्रीय संकट की घड़ी में नैतिक कंगाली दिखाने के लिए नहीं, अवसर के अनुरूप स्तर न उठा पाने के लिए हमारी धुलाई की है। सामने नजर आ रहे घटनाक्रम के परे ले जाने की हमारी अक्षमता का विरोध हो रहा है। हम यह भी नहीं समझ पाए कि मुंबई हमले जैसे संकट के वक्त ऊंचे स्वर में दिखाई गई वाचालता ठीक नहीं थी। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि सारे टीवी चैनल लगातार साठ घंटे तक घटनास्थल का सीधा प्रसारण देते रहे।

इसके बावजूद हमारे दर्शक अगले दिन के अखबार की ओर लपकते नजर आए। जाहिर है हम दर्शकों की जिज्ञासा तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन उसे संतुष्ट करने का कौशल हममें नहीं है। गहराई से की गई रिपोर्टिग का काम हमने बड़ी खुशी से अगले दिन के अखबारों पर छोड़ दिया। यह हमले के एकमात्र आतंकी जिंदा पकड़ने के लिए शहीद होने वाले तुकाराम ओंबले और हमले के बहुत सारे हीरो व शिकार लोगों के मामले में भी हुआ। साफ है कि टीवी वही देख सकता है जो खुलकर इसके सामने आए, वह नहीं जो छिपा हुआ हो।

पूरे साठ घंटे घटनास्थल पर हम मौजूद रहे। संकट ऐसा था कि हम इतना ही कर सकते थे। स्टोरी आगे नहीं बढ़ रही थी, लेकिन हमें यह बताना था कि घटनाएं हर पल घट रही हैं। यहीं पर नाटकीयता का प्रवेश हुआ। इतने बरसों में हमने इस फामरूले पर महारत हासिल कर ली है कि जब दिखाने को आपके पास कुछ नहीं है तो उस ‘कुछ नहीं’ में से बहुत कुछ निकाल लें।

यही वजह रही कि ताज होटल की खिड़की में जब भी लपटें नजर आईं 50 चैनलों में यह ‘सबसे पहले’ के टैग के साथ एक्सक्लूसिव शॉट बना! व्यक्तिगत त्रासदी, बहादुरी व बच निकलने की सारी घटनाएं टीवी पर संकट खत्म होने के बाद ही नजर आईं (ज्यादातर अखबारों से उठाई गईं)। यदि ऐसी कुछ घटनाएं भी लाइव प्रसारण के साथ पेश की जातीं, तो खोखली अतिशयोक्ति से बचकर प्रसारण में कुछ जान और गंभीरता आ पाती। हमारी यही अक्षमता दर्शकों से बर्दाश्त नहीं हुई, क्योंकि जब पूरी दुनिया हमारी दहलीज पर थी, तब हम पूरी तरह नाकाबिल साबित हुए।

फिर भी आप (एनबीए) इस समस्या को सुलझाने के लिए कुछ नहीं करेंगे, क्योंकि इसमें कठोर परिश्रम और नए विचार व परिवर्तन के साथ खर्च भी आएगा। इसके बजाय आप परिवर्तन का झूठा आवरण तैयार करेंगे। आप स्कूल में डांट खाए बच्चों की तरह सरकार के पास जाकर वादा करेंगे कि बंधक बनाने की घटनाओं का लाइव प्रसारण नहीं होगा, प्रसारण कुछ मिनटों के अंतराल से किया जाएगा। यह एक जिम्मेदारी भरा कदम है, लेकिन इससे अगली बड़ी चुनौैती के वक्त कवरेज की गुणवत्ता में इजाफा होगा?

इसके जवाब के लिए मुंबई हमले के कवरेज पर निगाह डालें। यह कुछ इस तरह हुआ : एक चीखता-चिल्लाता व हांफता एंकर आपको ताजा ब्रेकिंग न्यूज बताता है (जो वहीं है जिसे इसी चैनल पर आप घंटेभर पहले देख चुके थे)। वह भी वही खबर उसी अंदाज में सुना देता है। फिर एंकर पूरी घटना की समीक्षा के बहाने एक बार और उसे दोहराता है। साठ घंटों तक चैनलों पर यही चलता रहा। यदि यही वह खुफिया जानकारी है जो आतंकियों को देने का हम पर आरोप लग रहा है, तो सरकार को हमारा सम्मान करना चाहिए। इसलिए कि इतना बोलकर भी हमने दर्शकों व आतंकियों को इतना कम दिया।

अब अगर प्रसारण पांच ंिमनट देर से किया जाता तो क्या फर्क पड़ता? चीखने-चिल्लाने का कार्यक्रम पांच मिनट देर से शुरू होता और 60 घंटे बाद पांच मिनट ऊपर चलता। आतंकी भी एनएसजी के खिलाफ तालमेल बिठाने और गलत दिशा में गोलीबारी करने में पांच मिनट लेट हो जाते।

निसंदेह मैं जरा बढ़ाकर कह रहा हूं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि गेटवे ऑफ इंडिया का मामूली बायस्कोप वाला हम पर भारी पड़ता! (देखो देखो./आतंक का यह तांडव देखो/ खून का यह खेल देखो/ताज में यह आग देखो/ट्रायडेंट पर यह हमला देखो/नरीमन का नरसंहार देखो..)

यदि टीवी पर किसी चीज को तत्काल इलाज की जरूरत है, तो वह है एक फामरूला (चीखने-चिल्लाने व हांफने का) सब जगह फिट करने की बीमारी। जब हम दिल्ली में ब्ल्यू लाइन बस दुर्घटना में मौत की घटना और मुंबई हमले को समान रोष व तीव्रता से पेश करते हैं, तो साधारण और असाधारण का अंतर मिटा देते हैं। देश टीवी पर नैतिकता के अभाव के बजाय तार्किकता के अभाव से उकता गया है। इस समस्या से निपटने के लिए किसी कोड की नहीं रिपोर्टर की संस्था को जीवित करने की जरूरत है, क्योंकि प्रसारण में जान तभी आएगी। यह एक ऐसी संस्था है जो बिकाऊपन से टीवी के गठजोड़ के तीन वर्षो में नष्ट हो गई है।

हमें आत्म नियमन के बजाय गहरे आत्म निरीक्षण की जरूरत है। हम इसकी शुरुआत खुद से कुछ सवाल पूछकर कर सकते हैं: शुरुआती दौर के बाद हम बड़े रिपोर्टर क्यों नहीं पैदा कर पाए? रिपोर्टर को खत्म करके हम समाचार संगठन के रूप में अस्तित्व बचा पाएंगे? हममें से कितने ‘न्यूज चैनल’ का लाइसेंस रखने के हकदार हैं?

खेद है कि आत्म नियमन संहिता के ये मगरमच्छ के आंसू दर्शाते हैं कि हम गहरे आत्ममंथन से कोसो दूर हैं। इसके विपरीत यह बताता है कि हम अभी बदलाव से इनकार कर रहे हैं और सोचते हैं कि सिर्फ मास्क या मेकअप बदलना ही काफी होगा। हमने सही राह न चुनने का ही फैसला ले लिया है। एनबीए अपनी लीक पर चलता रहेगा जब तक कि अगली बड़ी त्रासदी में दर्द फिर लौटकर नहीं आता! आपका,

झारखंड में सत्तालोलुपता

झारखंड में सत्तालोलुपता



यह भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के अवसान का एक और दुखद अध्याय है कि विधानसभा उपचुनाव हारने के चार दिन बाद भी शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। न सिर्फ पद पर बने हुए हैं बल्कि कुर्सी बचाने के लिए हरसंभव राजनीतिक जोड़-तोड़ में मुब्तिला हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में वह महज तीसरे मुख्यमंत्री हैं जिन्हें उपचुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। उनकी प्रेरणा के लिए त्रिभुवन नारायण सिंह का उदाहरण काफी होता, जिन्हें साठ के दशक में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।

लाल बहादुर शास्त्री के मित्र त्रिभुवन नारायण सिंह तब उपचुनाव में प्रचार के लिए भी नहीं गए थे (वह मानते थे कि राज्य की जनता का प्रतिनिधि होने के नाते मुख्यमंत्री को खुद अपना प्रचार करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए) और हार के फौरन बाद इस्तीफा देकर अज्ञातवास में चले गए थे। पंद्रह दिनों तक तमाड़ में रहकर प्रचार अभियान चलाने वाले शिबू सोरेन से साठ के दशक की मूल्यों और शुचिता की राजनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन उन्हें जनादेश की भावना से निर्लज्ज खिलवाड़ की इजाजत भी नहीं दी जानी चाहिए।

कुर्सी बचाने के लिए जिन विकल्पों की जुगत में वह दिखाई दिए हैं, वे भी भारतीय राजनीति के पतन का दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण हैं। पहले कहा गया कि वे छह महीने की बची अवधि में दूसरा उपचुनाव लड़कर विधानसभा में आ जाएंगे। फिर संकेत दिए कि संप्रग का नेतृत्व केंद्र में उन्हें मंत्री बनाने को राजी हो जाए, तो वह झारखंड का मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे। रांची में पार्टी की एक बैठक में बाकायदा अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की संभावनाएं टटोलने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया। इस सबके दो ही अर्थ हैं। तमाड़ के नतीजे का उनके लिए कोई लोकतांत्रिक महत्व नहीं है।

दूसरा, सत्तालोलुपता में वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। दुर्भाग्य से संप्रग में उनके सहयोगी दलों ने भी उन्हें राजनीतिक तकाजे के अनुरूप आचरण के लिए प्रेरित या बाध्य नहीं किया। सभी पार्टियां इस संकट के तवे पर अपनी भावी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती हैं। दागदार पृष्ठभूमि के एक नेता को पराजित करके तमाड़ की जनता ने जो संदेश दिया, जब तक सारे राज्य की जनता उसे नहीं दोहराएगी, तब तक हमारे राजनीतिक दल लोकतांत्रिक मर्यादा का पाठ नहीं पढें़गे।

इस्राइल एक नाजायज़ देश

प्राचीन काल से ही यहूदियों के ऊपर जिस तरह के और जितने अत्याचार हुए हैं उनको जानकर मेरी हमदर्दी आप ही उनके साथ चली जाती है। एक ऐसे लोग जो हमेशा भटकते रहे, और जगह-जगह से भगाए जाते रहे, तार्किक रूप से वे निश्चित ही एक देश के अधिकारी हैं जो उनका अपना हो, जहाँ पर कोई उन्हे ये न कह सके कि निकलो अब हमें तुम्हारे चेहरों से नफ़रत है। मगर वो देश, क्या किसी अन्य लोगों को अपदस्थ कर के बनाया जाना नीति-सम्मत है? और उनकी दारुण स्थिति क्या उन्हे अन्य जनों पर अत्याचार करने का अधिकार दे देती है..? और फिर यहूदियो पर किए गए ऐतिहासिक अपराधों का दण्ड फ़िलीस्तीन के लोगों को दिया जाना कैसे उचित कहा जा सकता है?

नकबा
संयुक्त राष्ट्र में नवम्बर १९४७ में फ़िलीस्तीन के बँटवारे में दुनिया भर के देशों की रायशुमारी हुई बस उन से नहीं पूछा गया जिनके ऊपर ये गाज गिरने वाली थी। उस समय फ़िलीस्तीन में यहूदियों की संख्या ६ लाख और अरबों की संख्या १३ लाख बताई जाती है। यहूदियों के हिस्से में जितनी ज़मीन आई उस से वो क़तई मुतमईन नहीं थे, उन्हे पूरा फ़िलीस्तीन चाहिये था, जेरूसलेम समेत।

इसीलिए इज़राईल के बनने की घोषणा के साथ ही उन्होने फ़िलीस्तीनी अरबों को खदेड़ देने के लिए उनके गाँव के गाँव का जनसंहार शुरु कर दिया। हगनह और दूसरे हथियारबन्द दस्ते अरबों के गाँवों में जाते और लोगों को अंधाधुंध मारना शुरु कर देते। पहले इज़राईल का कहना था कि अरब आप ही अपने घरों को छोड़कर भाग खड़े हुए ताकि अरब देशों के संयुक्त आक्रमण के लिए रास्ता साफ़ किया जा सके। ये सरासर झूठ था।

खुद इज़राईल मानता है कि डेरा यासीन नाम के गाँव में यहूदी दस्तों ने बमों और गोलियों की वर्षा कर के ११० लोगों की जान ले ली। इन निहत्थे और बेगुनाह लोगों में औरतें और बच्चे भी शामिल थे। और ये घटना कोई अपवाद नहीं थी। क्योंकि अब तो खुद इज़राईल के इतिहासकार मानने लगे हैं कि १९४७ से १९४९ के बीच इज़राईली सेनाओं ने ४०० से ५०० अरब गाँवों, क़स्बों और कबीलों पर हमला कर के उन्हे अरबों से खाली करा लिया। ये जातीय हिंसा अपने परिमाण में हिटलर द्वारा की गई यहूदियों की हत्याओं से संख्या में ज़रूर कम थी पर चरित्र में नहीं।

इज़राईली जिस घटनाक्रम को इज़राईल की स्थापना के नाम से दर्ज करते हैं उसे फ़िलीस्तीनियों ने नकबा कह कर पुकारा- एक महाविपत्ति जो इज़राईल के हाथों उन पर आ पड़ी। वैसे अरबी भाषा में इज़राईल का मायने मृत्यु का देवता यमराज होता है। और यह अर्थ आज का बना नहीं, पुराना है।

अरब राष्ट्र
१४ मई को इज़राईल के बनने के अगले दिन ही पाँच अरब देशों- मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और इराक़- ने मिलकर इज़राईल पर हमला कर दिया। इज़राईल ने अपनी तैयारियाँ की थीं मगर इतनी नहीं थी कि वो अकेले पाँच देशों की सेनाओं का मुक़ाबला कर सके। लेकिन उसकी सहायता की रूस ने अपने सहयोगी चेकोस्लोवाकिया के माध्यम से। उल्लेखनीय है कि रूस में भी यहूदियों के प्रति नफ़रत का एक लम्बा इतिहास रहा है और इज़राईल को विस्थापन करने वालों में सबसे बड़ी संख्या जर्मनी के अलावा पूर्वी योरोप और रूस से ही थी।

बेहतर और विकसित हथियारों की इस अप्रत्याशित मदद से अचानक सैन्य संतुलन इज़राईल के पक्ष में हो गया और अरब सेनाएं अपना मक़सद पूरा नहीं कर सकीं। बीच-बचाव कर के युद्ध विराम करा लिया गया। मगर तब तक वेस्ट बैंक (जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का वो फ़िलीस्तीनी हिस्सा जहाँ बँटवारे के बाद का अरब राज्य क़ायम होना था) पर जोर्डन का और गाज़ा पट्टी पर मिस्र का क़ब्ज़ा हो गया था।

इस क़ब्ज़े के १९ साल तक गाज़ा और वेस्ट बैंक के भू-भाग पर फ़िलीस्तीनी राज्य बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। फ़िलीस्तीनी लगातार मिस्र और जोर्डन के शासन में शरणार्थियों की तरह रहते रहे। क्योंकि सच यही है कि फ़िलीस्तीन एक अलग राज्य के रूप में अरबों के बीच कभी अस्तित्व में नहीं रहा, वो हमेशा एक अरब राष्ट्र के अंग के रूप में या फिर ऑटोमन साम्राज्य के अंग के रूप में रहा। और वे पाँचों अरब देश इज़राईल के खिलाफ़ इसलिए नहीं थे क्योंकि उसने फ़िलीस्तीन, एक स्वतंत्र राष्ट्र की अवहेलना की थी। नहीं। बल्कि इसलिए कि उसने एक अरब राष्ट्र की अवहेलना की थी जो अलग-अलग देशों में बँटा हुआ था। देश एक भौगोलिक सत्ता है जबकि राष्ट्र एक मानसिक संरचना।

आधुनिक राष्ट्र निर्माण अरबों में प्राकृतिक रूप से नहीं आ गया जैसे हम भारतीय भी मुग़ल सत्ता के क्षीण होते ही अपने एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण में संलग्न नहीं हो गए। ये चेतना तो हमारे भीतर पैदा हुई अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष करते हुए। इसी तरह अरबों के जो देश आज दुनिया के नक़्शे पर है वो अलग-अलग देश ज़रूर हैं उनकी सरकारे अपने राजनैतिक सत्ता और उसके हित के अनुसार अलग-अलग निर्णय लेकर एक दूसरे के खिलाफ़ भी खड़ी दिखाई पड़तीं हैं। मगर राष्ट्र के बतौर अरब जन शायद अभी भी एक हैं। इसीलिए वो किसी भी मसले पर एक स्वर में अपनी राय व्यक्त करते हैं।

सम्भवतः हमारे अपने प्रदेश बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात, केरल, राजस्थान, पंजाब, मणिपुर आदि भाषा, संस्कृति के स्तर पर एक दूसरे से अधिक जुदा है बनिस्बत इन अरब देशों के। वे अलग हैं क्योंकि नक़्शे पर लकीर खींच के उन्हे अलग-अलग कर दिया गया। शायद फ़िलीस्तीन की सरकार ही सबसे लोकतांत्रिक सरकार है जिसे इज़राईल और उसके तमाम दोस्त देश बरसों तक आतंकवादी कह कर दुरदुराते रहे।

फ़िदायीन हमले
१९४७-४९ के नकबे में न जाने कितने लोग मारे गए और तक़रीबन आठ लाख अरब अपने घरों और ज़मीनों से बेघर हो गए। बेघर हुए फ़िलीस्तीनियों में से कुछ ऐसे भी थे जिन्होने वापस लौटकर इज़राईल के शासन में ही सही, अपनी ज़मीन को पाने की कोशिश की। मगर इज़राईल ने तुरत-फ़ुरत क़ानून पारित कर दिया था कि भागे हुए फ़िलीस्तीनियों को वापस लौटने नहीं दिया जाएगा और ऐसी कोशिश करने वालों को घुसपैठी माना जाएगा।

दूसरी तरफ़ दूसरे बाक़ी दुनिया और अरब देशों से यहूदी भाग-भाग कर इज़राईल में चले आए। और इज़राईली सरकार ने उन्हे भगाए गए फ़िलीस्तीनियों की ज़मीनों पर बसाना शुरु कर दिया। ये क़दम अपने घरों को लौटने की फ़िलीस्तीनियों की आशाओं पर कुठाराघात था। लेकिन ये क़ानून बनाने भर से फ़िलीस्तीनी रुक नहीं गए, जो अपनी ज़मीन पाने के लिए थोड़ा संघर्ष करने को भी राजी थे। सीरिया, मिस्र और जोर्डन की सीमाओं से ये फ़िलीस्तीनी नागरिक इज़राईल की सीमा में प्रवेश कर के अपने घरों को लौटने की कोशिश में इज़राईलियों के साथ जिद्दोजहद में उतरने लगे। और वे मरने-मारने को तैयार थे।

इज़राईल का कहना है कि १९५० से १९५६ के बीच ऐसे फ़िदायीन हमलों में ४०० इज़राइलियों की मौत हुई। ये फ़िदायीन तो मारे ही जाते और जवाब में इज़राईली सेना सीरिया, मिस्र और जोर्डन में उनके ठिकानों पर हमले करती जिससे और भी अधिक ग़ुस्से के बीज पड़ते और नफ़रतें और गहरी होतीं। १९५६ में गाज़ा पट्टी में खान युनूस नाम की एक जगह में घुसकर इज़राईली सेना नें २७५ फ़िलीस्तीनियों की हत्या की और राफ़ह नाम के एक शरणार्थी कैम्प पर हमला कर के १११ की।

ये है वो बुनियाद जिसके आधार पर आज तक इज़राईल अपने घर, अपनी ज़मीन, अपने देश को वापस लेने के लिए हक़ की लड़ाई लड़ रहे फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहता आया। मज़े की बात ये है कि इज़राईल एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश होते हुए भी ग़ैर-फ़ौजियों की हत्या करते रहने के बावजूद आतंकवादी नहीं कहलाता। क्यों? क्योंकि उसकी तरफ़ से हत्याएं सेना की वर्दी पहनने वाले लोग करते हैं? क्या एक वर्दी पहनने भर से बेगुनाहों के खिलाफ़ हिंसा जायज़ हो जाती है?

छै दिन की लड़ाई


अरब देशों और इज़राईल के बीच अगला बड़ा संकट तब खड़ा हो गया जब १९५६ में मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके पहले इस पर ब्रिटेन और फ़्रांस का अधिकार होता था। इस से इन दोनों देशों को भारी राजनैतिक, सामरिक और आर्थिक धक्का पहुँचा जिसका खामियाज़ा पूरा करने के लिए वे मिस्र पर आक्रमण करने तक की सोचने लगे। मगर फिर स्वयं हमला न कर के ये ज़िम्मेदारी इज़राईल के कंधो पर डाल दी गई जो मिस्र से पहले ही चोट खाया हुआ था क्योंकि उसने स्वेज़ तो इज़राईल के लिए बंद ही की हुई थी साथ-साथ १९५१ से ही तिरान जलडमरू मध्य से लाल सागर की ओर निकलने वाले उसके जहाजों का आना-जाना बंद कर रखा था। इज़राईल ने मिस्र पर आक्रमण किया ज़रूर मगर उसे पीछे हटना पड़ा क्योंकि सऊदी अरब ने ब्रिटेन को तेल की आपूर्ति बंद कर दी और अमरीका, रूस आदि ने भी दबाव डाला।

१९६७ में अरब देशों को फिर यह अन्देशा हुआ कि इज़राईल उन पर आक्रमण करने वाला है और उन्होने इस से बचाव की तैयारी शुरु कर दी। मगर दूसरी तरफ़ इज़राईल ने उनकी सारी तैयारियों को धता बताते हुए उन पर प्रि-एम्प्टिव स्ट्राइक्स कर डाली। मिस्र के वायु-यान हैंगर में खड़े-खड़े तबाह हो गए। जोर्डन की सेनाओं को खदेड़ दिया गया और सीरिया को पीछे धकेल दिया गया।
कुल छै दिन चली इस लड़ाई के बाद इज़राईल ने संयुक्त राष्ट्र के बँटवारे के आधार पर बने अरबों के हिस्से वाले पूरे फ़िलीस्तीन को निगल लिया और अपने हर पड़ोसी की ज़मीन भी दबा ली। बस एक लेबनान को छोड़कर जिसकी सीमा को वो बाद में कई बार दबाता रहेगा। स्वेज़ नहर के किनारे तक मिस्र का सिनाई का रेगिस्तान, जोर्डन से वेस्ट बैंक और सीरिया से गोलन हाईट्स छीनने के परिणाम स्वरूप एक बार फिर फ़िलीस्तीनी शरणार्थियों का सैलाब उमड़ पड़ा, जो जान बचा कर वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी से दूसरे अरब देशों में घुस गए।

इस तरह की मध्ययुगीन आक्रमणकारी नीति चलाने की चौतरफ़ा निन्दा हुई और इज़राईल पर सब तरफ़ से दबाव पड़ा कि वो पड़ोसी देशों की ज़मीन वापस करे। इज़राईल सिर्फ़ एक शर्त पर ये ज़मीन वापस करने को राजी था- पड़ोसी देश उसे एक वैध देश के रूप में मान्यता दे दें और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लें। ये एक बात ज़ाहिर कर देती है कि इज़राईल खुद ये बात जानता है कि वो एक अवैध देश है और उसने दूसरों की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा कर के अपना देश बनाया है तभी उसके लिए वैधता का ये प्रमाण-पत्र इतना ज़रूरी हो जाता है।

इज़राईल को आगे घुटने टेककर उसे मान्यता देने में पहल मिस्र की तरफ़ से हुई। बदले में इज़राईल ने उसे सिनाई का क्षेत्र लौटा दिया। इस समझौते के ईनाम के तौर पर मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात को नोबल शांति पुरुस्कार दिया गया जिसे उन्ह्ने इज़राईल के राष्ट्रपति के साथ साझा। लेकिन अरब जनता इस समझौते से खुश नहीं थी। इस समझौते के दो साल बाद ही सादात की हत्या कर दी गई।


यदि विश्व एक मोहल्ला होता तो ये मामला कैसा दिखता ज़रा ग़ौर करें
आप के पूरे मोहल्ले के बेचारे, बेघर, और मज़्लूम लोग एक घर पाने के लिए बेताब हैं। आप को कोई ऐतराज़ भी नहीं मगर वे कहते हैं कि आप के घर में अपना घर बनाएंगे और मोहल्ले वाले कहते हैं कि हाँ-हाँ ठीक तो है.. क्या उन्हे एक छत का हक़ भी नहीं है। विचार नेक है और आप को भी हमदर्दी है उन बेघर मज़्लूमों से। मगर आप के घर में.. ये सोच कर ही आप के होश फ़ाख्ता हो जाते हैं।

फिर ये बेघर लोग आकर डेरा डाल देते हैं और एक अभियान के तहत। और फिर और भी जितने मज़्लूम हैं उन सब को आप ही के घर में आ कर बसने की दावत दे डालते हैं और जब आप विरोध करते हैं तो आप से लड़ते हैं, और आप के घर वालों की हत्याएं करते हैं। मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। फिर मोहल्ले वाले एक पंचायत कर के आप के घर के दो हिस्से कर देते हैं, जिस में सब लोग वोट डालते हैं सिवा आप के।

इसी बीच आप जो अब सड़क पर आ चुके हैं घर में घुसने की कोशिश में थोड़ा हाथ पैर चलाते हैं, उनके घर के सदस्यों को मारते हैं तो वो घर में घुसे मज़्लूम लोग, आप को आतंकवादी घोषित कर देते हैं और मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। उस के बाद जब भी इस घर के स्वामित्व की बात उठती है तो वो आतंकवादियों से बात न करने की नीति दोहरा देते हैं। कहते हैं कि तभी बात करेंगे जब आतंकवाद छोड़ दोगे यानी अपने घर में वापस घुसने की कोशिश। और ये मान लोगे कि घर के स्वामी वे ही मज़्लूम लोग हैं। इन शर्तों को मान लिया तो फिर आप बचेंगे कहाँ?

ग़नीमत ये है कि आपके पड़ोसी अच्छे हैं और आप का साथ देते हैं। मगर जब आप के पड़ोसी आप की मदद के लिए आते हैं तो वे मज़्लूम न सिर्फ़ उन्हे खदेड़ बाहर करते हैं बल्कि उनके घरों की भी ज़मीन दबा लेते हैं। हार कर पडो़सी अपनी-अपनी ज़मीन वापसी की कोशिश में मशग़ूल हो जाते हैं। मज़्लूम लोग उनसे कहते हैं कि पहले तुम साइन कर के हमें इस घर का असली मालिक स्वीकार कर लो तो हम तुम्हारी ज़मीन वापस कर देंगे।
पड़ोसी को डर है कि आप का घर वापस दिलाने के चक्कर में कहीं वो भी आप की तरह सड़क पर आ गया तो? तो अब पड़ोसी अपनी ज़मीन की सोचे कि आप के घर की? बताइये! और ये भी बताइये कि आप के घर में घुस के बैठे उन मज़्लूमों को अब मज़्लूम कहना कितना उचित है?

इस लेख की पहले की कड़ियाँ -
जो वादा किया..
रचना एक नए देश की
अराफ़ात, हमास, शांति वार्ताएं और इन्तिफ़ादा पर लिखना अभी बाक़ी है.. पर थक सा रहा हूँ..

अराफ़ात एक महानायक

1948 में इज़राईल की स्थापना के बाद बिखर आठ लाख शरणार्थियों में जो तमाम तरह की छोटी-छोटी राजनैतिक प्रतिक्रियाएं और अभिव्यक्तियाँ हुई उनमें से एक फ़तह नाम का संगठन भी था जो कुवैत में पढ़ने वाले फ़िलीस्तीनी विद्यार्थियों के बीच १९५९-६० में अस्तित्व में आया। फ़तह का उद्देश्य इज़राईल का विनाश और फ़िलीस्तीन की आज़ादी था। इसकी अगुआई कर रहे थे यासिर अराफ़त, जो वहाँ इंजीनियरिंग की शिक्षा हासिल कर रहे थे। अराफ़ात पहले ऐसा नेता थे जिन्होने फ़तह को अन्य फ़िलीस्तीनी गुटों/संगठनो की तरह किसी भी अरब देश का पिछलग्गू बनने से इंकार कर दिया और फ़िलीस्तीन की मुक्ति को खास फ़िलीस्तीनी संदर्भ में देखा, आम अरब संदर्भ में नहीं। उनसे ही फ़िलीस्तीनी राष्ट्रवाद की शुरुआत होती है और फ़िलीस्तीनी राष्ट्र निर्माण की भी। यहाँ तक कि आरम्भ में उन्होने इन देशों से आर्थिक सहयोग तक लेने से इंकार कर दिया ताकि उन पर किसी तरह का दबाव न रहे। कुवैत के बाद अराफ़ात ने पहले सीरिया और फिर जोर्डन को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाया।




१९६४ में फ़िलीस्तीन मुक्ति संगठन (पैलेस्टाइन लिबरेशन ऑरगेनाइज़ेशन) पी एल ओ की स्थापना हुई और १९६७ में इज़राईल के साथ अरब देशों की छै दिन की जंग। इस जंग के नतीज से लाखों फ़िलीस्तीनी एक बार फिर से शरणार्थी हुए और जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे पर इज़राईल का क़ब्ज़ा हो जाने से पूर्वी किनारे पर जोर्डन देश में बड़ी संख्या में तम्बुओ में आबाद हुए। इन्ही शरणार्थी कैम्पो में से एक करामह की लड़ाई लड़ी गई जिसने यासिर अराफ़ात को एक महानायक का दरजा दे दिया।






करामह की लड़ाई

फ़तह के लड़ाके इज़राईली सीमा पार कर के उनके ठिकानों पर हमला करने की नीति अपना कर एक छोटे स्तर का गुरिल्ला युद्ध छेड़े हुए थे, जिसमें कभी कदार एक-दो सैनिकों की क्षति हो जाती, मगर इज़राईल अपने रौद्र रूप और कठोर छवि को ज़रा भी कमज़ोर नहीं पड़ने देना चाहता था। १९६८ में करामह कैम्प से किए गए एक फ़िदायीन हमले के जवाब में इज़राईल की सेना पूरे दल-बल के साथ जोर्डन की सीमा में गुस आई और कैम्प पर हमला कर दिया। अराफ़ात ने एक नीति के तहत फ़िलीस्तीनियों को पीछे नहीं हटने दिया। आखिरकार मामले के बहुत अधिक विराट रूप ले लेने से डरकर इज़राईल की सेना स्वयं पीछे हट गई।




हालांकि इस लड़ाई में १५० फ़िलीस्तीनी व २५ जोर्डनी सैनिक मारे गए और दूसरी तरफ़ कुल २८ इज़राईली। मगर इज़राईल की सेना का पीछे हटना अरब जन में एक अद्भुत जीत की तरह देखा गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी अरब ने इज़राईल की सेना का डट कर मुक़ाबला किया था और उसे मुँहतोड़ जवाब दिया था। करामह की लड़ाई के बाद अराफ़ात का क़द अरबों के बीच बहुत ऊँचा हो गया । इसी जीत के प्रभाव का नतीजा था कि अराफ़ात को पीएल ओ का अध्यक्ष चुन लिया गया।





जोर्डन में संघर्ष

अराफ़ात की इस अप्रत्याशित लोकप्रियता से जोर्डन देश के भीतर सत्ता के दो केन्द्र हो गए। किंग हुसेन मक्का के शरीफ़, हाशमी परिवार से थे और वैधानिक रूप से देश के राजा थे मगर अरबों के बीच लोकप्रिय समर्थन अराफ़ात और पी एल ओ के लिए बढ़ता ही जा रहा था। जैसा कि आप को मैंने पहले बताया था कि जोर्डन भी पूरी तरह से एक कृत्रिम देश जो पहले विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया क्योंकि अंग्रेज़ हाशमी परिवार की वफ़ादारी का ईनाम देना चाहते थे। वादा तो एक पूरे अरब राष्ट्र का था पर भागते भूत की लंगोटी भली जानकर, किंग हुसेन के दादा अब्दुल्ला ने वो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।




तो किंग हुसेन अरबों के बीच फ़िलीस्तीन को लेकर जो लोकप्रिय जज़्बात थे उनको समझते थे इसीलिए किंग हुसेन ने बहुत कोशिश की मामला सुलझ जाए; यहाँ तक कि उन्होने अराफ़ात के सामने जोर्डन के प्रधान मंत्री पद को सम्हालने का भी प्रस्ताव रखा मगर अराफ़ात फ़िलीस्तीनी मक़्सद के लिए प्रतिबद्ध थे; वे तैयार नहीं हुए।

१९७१ में आखिरकार दोनों पक्षों के बीच लड़ाई छिड़ गई। अन्य अरब देशों ने किसी तरह बीच-बचाव करके युद्ध विराम कराया गया पर तब तक ३५०० फ़िलीस्तीनी मारे जा चुके थे। फिर भी छिट-पुट घटनाएं होती रहीं। और हालात तब बिगड़ गए जब एक रोज़ अराफ़ात ने हुसेन के सत्ता पलट का इरादा कर लिया और किंग हुसेन पर हमला हो गया। अब समझौता नामुमकिन था और अराफ़ात और उनके लड़ाकों को जोर्डन छोड़ना पड़ा। पचीस साल पहले विस्थापित लोग फिर एक बार अपना बोरिया-बिस्तर बाँधकर लेबनान की शरण में चले गए।





लेबनान

लेबनान आकर अराफ़ात को अपने गतिविधियों के लिए वो आज़ादी मिल गई जो जोर्डन में उपलब्ध नहीं हो पा रही थी क्योंकि लेबनान की सरकार की सत्ता कमज़ोर थी और वहाँ पर पी एल ओ एक स्वतंत्र राज्य की हैसियत से काम करने लगा। इज़राईल के भीतर और बाहर यहूदी सत्ता और यहूदी जनता पर हमले कर के उस पर दबाव बनाना उसकी नीति के अन्तर्गत था। पी एल ओ में अराफ़त के फ़तह के अलावा भी कई दल शामिल थे। उनके नरम से लेकर चरम तक के सब रंग थे और सब पर अराफ़ात का नियंत्रण था भी नहीं।





१९७० से १९८० के बीच लेबनान को केन्द्र बनाकर पीएल ओ के वृहद छाते के नीचे से तमाम तरह की हिंसक गतिविधियाँ की गई जैसे प्लेन हाईजैक, फ़िदायीन हमले, बंधक बनाना आदि। हथगोले, फ़्रिज बम, कार बम आदि का इस्तेमाल करके इज़राईलियों के खिलाफ़ आतंकवादी घटनाएं होती रही। कुछ ऐसी भी थीं जिसमें मासूम बच्चों को निशाना बनाया गया। इन सब में सब से कुख्यात और दुखद घटना रही म्यूनिक ओलम्पिक में की गई ८ इज़राईली खिलाड़ियों की हत्या। जिसका बदला लेने के लिए इज़राईल ने भी एक ग़ैर क़ानूनी पेशेवर हत्यारे का तरीक़ा अपनाया (देखिये स्टीवेन स्पीलबर्ग की फ़िल्म म्यूनिक)। इज़राईली कमान्डोज़ ने म्यूनिक हत्याकाण्ड के लिए जितने भी लोग ज़िम्मेदार थे, उन सब को चुन-चुन कर मारा।





इज़राईल का जवाब

१९७८ में एक १८ बरस की फ़िलीस्तीनी लड़की के अगुआई में ११ अन्य फ़तह के सद्स्यों द्वारा अंजाम दिए गए एक कोस्टल रोड मैसेकर में ३७ इज़राइली मारे गए। इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब देने के लिए इज़राईल ने फ़िलीस्तीनी गुरिल्लो को लेबनान की अन्दर बहने वाली लिटानी नदी के उत्तर तक धकेलने के इरादे से हमला कर दिया। एक हफ़्ते तक चली इस कार्रवाई में २००० ग़ैर फ़ौजी लेबनीज़ मारे गए और २,८५,००० अपने घरों से उजड़ गए। फ़िलीस्तीनी लड़ाकों का कुछ ज़्यादा नुक़्सान नहीं हुआ।


बड़ी संख्या में फ़िलीस्तीनियों के आ जाने से लेबनान की आन्तरिक राजनीति में उथल-पुथल मच गई थी। लेबनान के ईसाई समुदाय और मुस्लिम समुदाय के बीच फ़िलीस्तीनियों को लेकर एक गहरा मतभेद घर कर गया था। जिसके चलते पी एल ओ, लेबनीज़ ईसाई संगठन और इज़राईल के बीच हिंसक झड़पे आम हो चली थीं। सीरिया का भी इस खेल में दखल बराबर बना रहा।





१९८२ में अपने एक राजदूत के हत्या के प्रयास के बदले में इज़राईल ने लेबनान पर हमला कर दिया और उसे नाम दिया ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली। लेबनान में भी तमाम समुदायों के बीच संघर्ष ने एक गृह-युद्ध का रूप ले लिया और इज़राईल ने भी मौके का फ़ायदा उठाकर हमला कर दिया। ये हमला मुख्य रूप से पी एल ओ और फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ने के मक़सद से किया गया था जिसमें वो कामयाब भी हो गए। इस लड़ाई के अन्तिम चरण में जब फ़िलीस्तीनियों को खदेड़ दिया गया था तब इज़राईल के सरंक्षण में लेबनीज़ ईसाई संगठन फ़लन्जिस्ट ने निहत्थे फ़िलीस्तीनियों के शरणार्थी कैम्प पर एक हमला किया जिसमें मरने वालों की संख्या एक हज़ार से चार हज़ार तक अनुमानित की जाती है। इस ऑपरेशन पीस फ़ॉर गैलिली में निहत्थे फ़िलीस्तीनियों का जनसंहार प्रच्छन्न था।





फ़िलीस्तीनियों और पी एल ओ के पाँव लेबनान से भी उखड़ गए और अधिकतर फ़िलीस्तीनियों ने इस बार सीरिया में शरण ली और अराफ़ात को अपना पी एल ओ का दफ़्तर दूर ट्यूनिशाई शहर ट्यूनिस ले जाना पड़ा। अराफ़ात का फिर कभी लेबनान लौटना नहीं हुआ।





ओस्लो क़रार

फ़िलीस्तीन से इतना दूर जाकर अराफ़ात की हिम्मत जैसे टूटने लगी और जवानी के वो उत्साही दिन भी नहीं रहे। इज़राईल को नक़्शे से मिटाना हर आने वाले दिन और भी अधिक असम्भव दिखता जा रहा था। और दूसरी इज़राईल भी अपने नागरिकों की सुरक्षा की गारंटी के बदले कुछ रियायत देने को तैयार होने का मन बनाने लगा था। अराफ़ात का इस नए बदलाव से कोई सम्पर्क नहीं था। उनकी अपनी हालत युधिष्ठिर जैसी होती जा रही थी जो पूरे राज्य की जगह अपने लोगों के लिए पाँच गाँवों पर भी समझौता करने को तैयार हो सकते थे। शायद ऐसी ही किसी हताशा या विकसित चिन्तन के तहत उन्होने समझौते का रास्ता अख्तियार किया।





नवम्बर १९८८ में उन्होने एक तरफ़ तो फ़िलीस्तीन राज्य की स्थापना की उद्घोषणा की और दूसरी तरफ़ अगले ही महीन संयुक्त राज्य में लगातार बढ़ते अन्तराष्ट्रीय दबाव में आकर आतंकवाद की भर्त्सना की। इस भर्त्सना के चलते दबाव अब अराफ़ात से हटकर इज़राईल पर आ गया जिसने पी एल ओ से कभी बात न करने का रुख हमेशा से ही बना कर रखा हुआ था। इसलिए एक स्थायी हल और शांति बहाल करने के लिए पी एल ओ के साथ बैक चैनल संवाद शुरु हुआ, ओस्लो में।





तीन साल तक चले इसी संवाद की बुनियाद पर १९९३ में इज़राईल और फ़िलीस्तीन के बीच ऐतिहासिक समझौता, वाशिंगटन में हो गया। फ़िलीस्तीन ने अपनी तरफ़ इज़राईल के विनाश का मक़सद अपने चार्टर से हटा दिया और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लिया। बदले में इज़राईल गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक के कुछ भाग का प्रशासन व प्रबन्धन फ़िलस्तीनियों को सौंपने को तैयार हो गया। यह प्रक्रिया पाँच बरस में पूरी होनी थी लेकिन इज़राईल ने सारे अधिकारों को निर्दयता से भींचे रखा और बराबर नियंत्रण अपनी मुट्ठी में क़ैद किए रहा। १९९४ में यासिर अराफ़ात और इज़राईली प्रधान मंत्री यित्ज़ाक राबिन और विदेश मंत्री शिमोन पेरेज़ को नोबेल शांति पुरुस्कार से नवाज़ा गया पर शांति कहीं दूर-दूर तक नहीं दिख रही आज तक। और आज भी इज़राईल की दमनकारी नीति और नियंत्रण जारी है।

इस समझौते के दो बरस बाद ही यित्ज़ाक राबिन की यहूदी दक्षिणपंथियों ने हत्या कर दी। इसके पहले सुलह का रास्ता अपनाने मिस्र के राष्ट्र्पति अनवर सादात की हत्या मुस्लिम दक्षिणपंथियों द्वारा कर दी गई थी। उल्लेखनीय है कि उन्हे भी नोबेल शांति पुरुस्कार मिला था।





सेटलर्स

१९४८ के नकबे के दौरान फ़िलीस्तीनी अरबों दसे खाली कराए गए गाँवों, क़स्बों और शहरों में योरोप और दुनिया के अन्य देशों से आए यहूदियों को बसा दिया गया। इन्हे सेटलर(settler) कहा गया। १९६७ की छै दिन की जंग के बाद जब इज़राईल के के हाथ काफ़ी बड़ा भू-भाग आ गया तो उस ने गाज़ा पट्टी, वेस्ट बैंक और सिनाई क्षेत्र पर और भी सेटलर्स को बसाना शुरु कर दिया। ये सारे क्षेत्र सयुंक्त राष्ट्र के बँटवारे के मुताबिक भी उसके लिए अवैध थे, मगर उस की धृष्टता देखिये कि १९७८ में मिस्र के हुए समझौते के बाद सिनाई तो उसे लौटा दिया मगर गाज़ा पट्टी और वेस्ट बैंक को इज़राईल का अभिन्न अंग घोषित कर दिया।





गाज़ा और वेस्ट बैंक में बचे रह गए फ़िलीस्तीनी अरबों का सीधा संघर्ष इन सेटलर्स के साथ होता। इज़राईल नए आए यहूदियों को अपने सीमांत पर बसा कर दो मक़सद पूरे करता रहा। एक वो नए ज़मीन पर यहूदियों को बसा कर उन्हे फ़िलीस्तीनियों को वापसी की उम्मीद और क्षीण करता है और दूसरे फ़िलीस्तीनियों को दबाने का काम इन नए आए हथियारबन्द यहूदियों को सौंप कर अपना काम आसान करता है। नए लोग फ़िलीस्तीनियों को दमन एक पाशविक वृत्ति के तहत करते हैं क्योंकि उन के अस्तित्व के लिए यही उनसे अपेक्षित होता है। उस ज़मीन पर या तो सेटलर रह सकते हैं या फ़िलीस्तीनी।




आज भी फ़िलीस्तीनियों और इज़राईलियों के बीच लड़ाई का बड़ा मसला ये सेटलर्स हैं। सेटलर्स और फ़िलीस्तीनी नागरिकों के बीच होने वाले इस संघर्ष में सेटलर्स खुद पुलिस और प्रशासन की भूमिका में रहते हैं।




फ़िलीस्तीनियों अपने रोज़गार-व्यापार के लिए भी पूरी तरह से इज़राईल पर ही निर्भर हैं। रोज़गार के अवसर कम और सीमित हैं, और व्यापार पर अनेको बन्दिशें। वास्तव में इज़राईली शासन में फ़िलीस्तीनी एक प्रकार के विशाल कारागार में ही बन्द कर के रखे गए हैं। जगह-जगह चेक पोस्ट खड़ी कर के लोगों के भीतर लगातार एक अंकुश बनाए रखना, आधी रात को घर में घुसकर तलाशी लेना, अंधाधुंध गिरफ़्तारियाँ करके बिना मुक़दमे लम्बे समय तक क़ैद में रखना, फ़र्जी एनकाउन्टर करना, छोटी सी बुनियाद पर लोगों के घरों का गिरा देना आदि इज़राईली प्रशासन का फ़िलीस्तीनियों के प्रति किया जाने वाला आम रवैया है। आज कल सेटलर्स ने फ़िलीस्तीनियों को परेशान करने की एक नई नीति निकाली है- फ़िलीस्तीनियों के घरों में बड़े-बड़े चूहो के झुण्ड छोड़ देना।




इन्तिफ़ादा

१९८८ में जब अराफ़ात आतंकवाद से तौबा करने की सोच रहे थे। उधर फ़िलीस्तीन में लम्बी निराशा और असहायता के लम्बे दौर की अभिव्यक्ति एक अजब बेचैनी में हो रही थी। नई पीढ़ी एक अजब दुस्साहस लेकर पैदा हो रही थी। गाज़ा में १९८७ में इज़राईली सेना के एक ट्रक से कुचलकर चार फ़िलीस्तीनियों की मौत हो गई। इस की प्रतिक्रिया में फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने पत्थर हाथ में उठा लिए और उसे अपने आक्रोश का हथियार बना कर इज़राईली सेना की तरफ़ फेंकने लगे।






छोटे-छोटे बच्चे जो न गोली से डरते और न टैंक से, कुछ तो पाँच बरस की उमर के। अपमान और दमन की ज़िन्दगी की मजबूरी को परे कर लड़ कर जीने की जज़बा पैदा कर लिया उन्होने। फ़िलीस्तीनी नौजवान के प्रतिरोध को इन्तिफ़ादा के नाम से जाना गया। इन्तिफ़ादा यानी डाँवाडोल के दौरान सिर्फ़ पत्थर ही नहीं चले। फ़िलीस्तीनी लड़के खुदकुश बमबाज़ भी बने, हथियारबन्द दस्तों से कार्रवाईयाँ भी की गईं, और इज़राईली इलाक़ों की तरफ़ रॉकेट भी दाग़े गए।





ये डाँवाडोल छै साल तक चलता रहा। हमास की निन्दा तो हुई मगर उस से अधिक दुनिया भर में इज़राईल के लिए निहायत शर्म का मसला बना। पहले इन्तिफ़ादा के दौरान ४२२ इज़राईली मारे गए और ११०० फ़िलीस्तीनी इज़राईलियों के हाथों मारे गए, जिसमें १५० के लगभग की उमर १६ बरस से भी कम थी। साथ-साथ लगभग १००० फ़िलीस्तीनी अपने ही लोगों के हाथों मारे गए। इनके बारे में शक़ था कि ये गद्दार हैं और इज़रालियों ले किए जासूसी करते हैं।






२००० में वेस्ट बैंक में अल अक़्सा मस्जिद को लेकर दूसरा इन्तिफ़ादा शुरु हुआ और फिर वही हिंसा चालू हो गई।





हमास

१९८७ में इन्तिफ़ादा के साथ ही फ़िलीस्तीनियों के बीच एक नए संगठन का उदय हुआ- हमास। सत्तर के दशक के बाद से दुनिया भर में मुस्लिम कट्टरपंथी विचारों का पुनरुत्थान हुआ है। पाकिस्तान में जनरल ज़िया की सदारत में, अफ़्ग़ानिस्तान में अमेरिका के पोषण से, इरान में अयातुल्ला खोमेनी के झण्डे के तले, मिस्र में अल जवाहिरी के दल में। अराफ़ात की प्रगतिशीलता और सेक्यूलर सोच के अवसान के साथ ही फ़िलीस्तीन में भी सुन्नी कट्टरपंथी वहाबी चिंतन मजबूती पकड़ी। ये आन्दोलन न सिर्फ़ राजनैतिक है बल्कि धार्मिक भी है। इज़राईलियों से लड़ने के अलावा फ़िलीस्तीनी औरतों का हिजाब अगत व्यवस्थित न हो तो उचित सज़ा देने में भी यक़ीन रखता है।





हमास के नेता अहमद यासीन बचपन से ही एक ऐसी अस्वस्थता के शिकार थे जिसने उनके अस्तित्व को व्हीलचेयर के साथ बाँध दिया थ। पर इस शारीरिक सीमा ने उनकी मानसिक क्षमताओं को सीमित नहीं किया। उनके प्रभाव में आकर सैकड़ों फ़िलीस्तीनी नौजवानों ने अपने को खुद्कुश बम बना कर शहीद कर दिया। उनके इसे खतरनाक प्रभाव के कारण इज़राईल ने उन पर कई बार हमले किए और आखिर में एक मिसाइल हमले से उनकी हत्या कर दी। इसके पहले इज़राईल ने फ़तह के नेता और अराफ़ात के सहयोगी अबू जिहाद को भी ऐसे ही एक हमले में मार डाला था।




आज की तारीख में फ़िलीस्तीन में अराफ़ात के संगठन फ़तह से कहीं अधिक लोकप्रियता हमास की है। २००६ के चुनावों में फ़िलीस्तीनी संसद की १३२ सीटों मे जहाँ फ़तह को ४३ सीटें मिलीं वहीं हमास ने ७६ सीटों पर जीत हासिल की। लेकिन आज फिर हमास को फ़िलीस्तीनियों का प्रतिनिधि मानने से इंकार किया जा रहा है, क्योंकि वे खुले तौर पर आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त हैं।

फ़िलीस्तीन की आज़ादी की लड़ाई का ये रंग पहले से ज़्यादा खतरनाक है मगर क्या फ़िलीस्तीनियों के अधिकार का फ़ैसला इस आधार पर होना चाहिये कि उनका प्रतिनिधि करने वाला दल एक अतिवाद से ग्रस्त है?

हिंसा जारी है



आज भी फ़िलीस्तीन और इज़राईल के बीच आपसी नफ़रत के अलावा तमाम सारे अनसुलझे मुद्दे बने हुए हैं। उनके बीच भू-भाग का बँटवारे का सवाल वैसे ही उलझा हुआ है। इज़राईल अपना आधिकारिक मानचित्र आज भी जारी नहीं करने को तैयार है। सेटलर्स फ़िलीस्तीन के नियंत्रण में घोषित कर दिये भागों में अभी भी बने हुए हैं। इज़राईल की सेना और पुलिस आज भी फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में घुसकर जिसको जी चाहे गिरफ़्तार कर लेती है। और थोड़ी सी हिंसा होते ही इज़राईल फ़िलीस्तीनी इलाक़ो पर बम और मिसाइल वर्षा करने लगता है। ये मामले सुलझ सकते हैं अगर उनके बीच विश्वास का कोई पुल बने मगर जब नफ़रत और प्रतिशोध की खाईयाँ खुद चुकी हों तो कैसे कोई मामला हल हो सकता है।






लेबनान के शिया संगठन हिज़्बोल्ला के साथ भी इज़राईल का ऐसा ही उग्र सम्बन्ध क़ायम है जिसके चलते २००६ में एक महीने लम्बी खूनी लड़ाई लड़ी गई जिसमें हज़ारों जाने गईं और बेरुत जैसा खूबसूरत शहर एक बार फ़िर नष्ट हुआ।






चूँकि ये लेख उन लोगों को समर्पित रहा जो समझते हैं कि इज़राईल जैसी कठोर दमन की नीति अपनाने से आतंकवाद काबू में आ जाएगा.. (याद रखा जाय कि आतंकवादी हमारे देश में हैं फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहना उनका अपमान और उनके ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा जमाए बैठे अपराधी देश इज़राईल का अनुमोदन है, हाँ हिंसावादी निश्चित हैं).. तो अपने उन बन्धुओं को लिए आखिर में एक आँकड़ा रखता चलता हूँ..




१९८७ से २००० तक के बीच चौदह साल में १८७३ फ़िलीस्तीनी और ४५९ इज़राईली मारे गए.. जबकि २००१ से २००७ के सात साल में ४२०७ फ़िलीस्तीनी और ९९१ इज़राईली अपनी जान से गए। यानी कि आधी ही अवधि में मरने वालों की संख्या दोगुनी से भी ज़्यादा हो गई।






भविष्य के प्रति निराश हूँ

हमारे हिन्दुस्तान में हिन्दू मुस्लिम के बीच का दुराव के पीछे राजनैतिक संघर्ष, धार्मिक पूर्वाग्रह, और आपसी हिंसा के कुछ अध्याय ज़रूर हैं मगर सैकड़ों साल तक एक दूसरे के साथ रहते हुए, एक दूसरे को धार्मिक, सांस्कृतिक, और नैतिक स्तरों पर गहरे तौर पर प्रभावित भी किया और एक साझा जीवन जिया है।





जो लोग साझी संस्कृति की सच्चाई को नकारते हैं वे भी मानेंगे कि पिछले हज़ार सालों में भारतीय उपमहाद्वीप में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियाँ नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग ज़रूर रहीं पर एक लम्बे सफ़र में कभी-पास कभी दूर रहकर भी एक दूसरे को प्रभावित करती रहीं।

अपने देश के प्रति मैं आशावान हूँ पर फ़िलीस्तीन के लिए मैं नाउम्मीद हूँ क्योंकि वहाँ ऐसे साझेपन की किसी भी सम्भावना को शुरु से ही पनपने ही नहीं दिया गया, पहले ही बँटवारा कर दिया।





१९४८ के नकबा के बाद एक दूसरे के एकदम खिलाफ़ हो गए ये दो समुदाय कभी आपस में सहज हो पाएंगे ये कहना बहुत मुश्किल है। एक फ़िलीस्तीनी, एक इज़राईली को देखकर क्या कभी भूल पाएगा कि ये उसी क़ौम की सन्तति है जिसने हम पर अनेको अत्याचार किए और हमें हमारे ही घर से बेघर कर दिया?





सम्भव है कि हिंसा का ताप मद्धिम पड़ जाय पर वो एक शोले की तरह हमेशा उन के दिलों में दब के रहेगी और कभी भी भड़कने के लिए बेक़रार बनी रहेगी। किसी बहुत बड़ी महाविपत्ति के भार के नीचे ही यह आपसी नफ़रत दफ़न होकर, उन्हे वापस जोड़ सकती है, शेष कुछ नहीं; ऐसा मुझे लगता है। भगवान करे मैं ग़लत होऊँ।

Sunday, January 11, 2009

बिहार भोजपुरी फ़िल्म सिटी बनी

कुछ फिल्मी सितारे और बिहार की सरकार इन दिनों बिहार में एक फिल्म सिटी बनाने को लेकर उद्यत हैं। वाकई यह बहुत अच्छी बात होगी अगर बिहार में कोई फिल्म इंडस्ट्री बन जाती है तो। फिल्में देखने का क्रेज बिहार में भी खूब है। खास तौर पर भोजपुरी फिल्में। लेकिन भोजपुरी फिल्में बनती मुंबई में हैं। आजकल भोजपुरी फिल्मों का सालाना टर्न ओवर 200 करोड़ को पार कर गया है। ऐसे में भोजपुरी फिल्मों से हजारों लोगों को रोजगार मिल रहा है। मजे की बात यह है कि भोजपुरी फिल्मों को आउटडोर लोकशन में शूटिंग बड़े पैमाने पर बिहार और यूपी में होती है। पर पोस्ट प्रोडक्शन का सारा काम मुंबई में जाकर होता है। जाहिर सी बात है कि इसमें हमारे मराठी भाइयों को भी भोजपुरी फिल्मों के कारण रोजगार मिलता है। लेकिन इन सबसे अलग हटकर बिहार में एक भोजपुरी फिल्म सिटी बननी ही चाहिए। क्यों .....क्योंकि तेलगू फिल्में हैदराबाद में बनती हैं। वहां कई स्टेट आफ द आर्ट स्टूडियो हैं। तमिल फिल्में चेन्नई में बनती हैं। बांग्ला फिल्में कोलकाता में बनती हैं। तो भला भोजपुरी फिल्में पटना में क्यों नहीं बननी चाहिए। इससे फिल्म से जुड़े लोगों को अपनी सेवाएं देने में आसानी होगी। किसी संघर्ष करने वाले गायक संगीतकार या गीतकार को भागकर मुंबई जाना और वहां स्ट्रगल नहीं करना पडेगा। उसको बक्सर से पटना ही तो जाना होगा। निश्चय ही यह अच्छी बात होगी।
फिल्म स्टार मनोज तिवारी ने इस मामले में पहल की है। उनकी पहल पर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आगे आए हैं। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप पर एक फिल्मसिटी बनाने की बात हो रही है। बिहार सरकार इसके लिए 200 एकड़ जमीन देने की बात कर रही है। यह बड़ा सुखद संकेत है। अगर पटना राजगीर रोड पर फिल्म सिटी बनती है तो बड़ी अच्छी बात होगी । शूटिंग के आउटडोर लोकेशन के लिए राजगीर बड़ी मुफीद जगह हो सकती है। राजगीर में जानी मेरा नाम जैसी लोकप्रिय फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है।
अगर बिहार में पोस्ट प्रोडक्शन का स्टूडियो होगा तो और फिल्म बनाने वालों को मौका मिलेगा। म्यूजिक वीडियो टीवी सीरियल की शूटिंग करने वालों को भी दिल्ली मुंबई का रूख नहीं करना पड़ेगा। मुझे तो लगता है कि भविष्य में बिहार में एक नहीं बल्कि कई स्टूडियो बनने चाहिए, और इतने स्तरीय स्टूडियो की मुंबई वाले भी अपना पोस्ट प्रोडक्सन का काम कराने के लिए बिहार का रूख करें। बिहार में फिल्मों के लिए तकनीकी टैलेंट की कमी नहीं है। बस उन्हें एक मौका देने की जरूरत है। अब मनोज तिवारी और भोजपुरी फिल्मों में अभय सिन्हा जैसे बड़े निर्माता इस क्षेत्र में आगे आ रहे हैं तो आगाज तो हो ही चुका है कुछ शुभ कार्यों के लिए....तो अंजाम भी अच्छा ही होना चाहिए.....

Saturday, January 10, 2009

ख्वाब

खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
ज़ीस्त मेरी थी जिनके सहारे अब ये सहारे टूट गये /
तेरे दम पर हमने फानूश तिरंगे मंगवाये /
तेरे सहारे ही ये हमने सुविधा के सामान जुटाये /
हुई खता आखिर क्या मेरी जो तुम ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
तेरे इश्क में दीवाने हम रांझा से आगे निकले /
तुझको पाने की चाहत में पत्थर हैं वो भी पिघले /
स्याह अंधेरा हमें डराता तुम जो ऐसे रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
याद हमें है आज वो लम्हा जब आये थे पहली बार /
जर्रा जर्रा हुआ था रोशन आमद से मेरा घर द्वार /
सपनों की सी बातें लगती आप जो पहलू से हैं गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
तेरे बिना बैचेनी रहती नींद नहीं आ पाती है /
तेरा साथ है सबब है चैन का ज़ीस्त हंसी हो जाती है /
ऐसी भी ये क्या रूसबाई वादे तेरे झूठ हुये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
बहुत हुई ये ऑंख मिचौली अब कुछ दिन तो रूक जाओ /
बने सियासी कठपुतली हो लेकिन अब ना तरसाओ /
बडे शहर तो हो चमकाते कस्बों से क्यों रूठ गये /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /
नफा सियासी देने को तुम राजा के माशूक बने /
हम भी आशिक परले तेरे बिल पूरा हर माह भरें
मान भी जाओ बिजली देवी बिन तेरे न काम चले /
खुली ऑंख के ख्वाब सुहाने क्यों ये अचानक टूट गये /

दोस्त तेरी याद बहुत आती है ......

दोस्त तेरी याद बहुत आती है /
यादें तेरी या उन लम्हों की
जो बिताये थे तेरे साथ बचपन में /
आज भी ताजा हैं वे याद पचपन में /
दोस्त तेरी याद बहुत आती है /
स्कूल से गोल मार अमरूद के बगीचे में /
दौड्ते दौड्ते जामफ़ल तोडते /
माली का डर भी मन में भरा हुआ /
पेड से गिरने के डर से डरा हुआ /
यादें आज भी मन को हर्षाती हैं /
दोस्त तेरी याद बहुत आती है /
स्कूल के बाहर चाट के ठेले /
बेर कि डलिया और केले /
खाते खिलाते चिढाते खिलखिलाते /
पेड की छॊंव मे बैठे बतियाते /
बचपन की बातें भूल नहीं पातीं हैं
दोस्त तेरी याद बहुत आती है /

झामुमो चंपई सोरेन के नाम पर राजी

रांची : झामुमो विधायक दल के नेता चंपई सोरेन राज्य के अगले मुख्यमंत्री हो सकते हैं. झामुमो विधायक दल की शनिवार रात हुई बैठक में चंपई सोरेन के नाम पर सहमति बनी. हालांकि इसकी ओधकापरक घोषणा नहीं की गयी है. पर भू राजस्व मंत्री दुलाल भुइयां व सांसद टेकलाल महतो ने इसकी पुष्टि की है. चंपई सोरेन सरायकेला से विधायक हैं. विधायक दल की बैठक में शिबू सोरेन ने ही चंपई के नाम का प्रस्ताव रखा. चंपई के नाम पर विधायकों से हस्ताक्षर भी करवा लिये गये हैं.आलाकमान को अवगत करायेंगेबैठक के बाद मुख्यमंत्री शिबू सोरेन ने कहा कि झामुमो ने निर्णय ले लिया है. हालांकि उन्होंने नये मुख्यमंत्री के नाम का खुलासा नहीं किया. उन्होंने कहा कि रविवार को वह दिल्ली जायेंगे. दिल्ली में यूपीए आलाकमान को पार्टी के निर्णय से अवगत करायेंगे. इसके बाद फैसला यूपीए आलाकमान को करना है. शिबू ने कहा कि उन्हें इस्तीफा तो देना ही है, लेकिन पहले वह यूपीए आलाकमान को पार्टी के निर्णय से अवगत करायेंगे. इसके बाद ही नये सीएम के नाम को सार्वजनिक करेंगे. दिल्ली से लौटने के बाद इस्तीफा दे देंगे. उन्होंने कहा मेरे पपरवार का कोई सदस्य मुख्यमंत्री नहीं बनने जा रहा है. लेकिन झामुमो का ही कोई विधायक मुख्यमंत्री बनेगा. दुर्गा के नाम पर नहीं बनी सहमति :11दुर्गा के नाम पर नहीं बनी सहमतिरांची : इससे पहले मुख्यमंत्री शिबू सोरेन दिल्ली से लौटे. दोपहर बाद झामुमो की केंद्रीय कार्यकापरणी की बैठक शुरू हुई. बैठक में दुर्गा सोरेन, सुधीर महतो, नलिन सोरेन व सुशीला हांसदा के नामों पर चर्चा की गयी. बैठक में शिबू ने दिल्ली में यूपीए नेताओं के साथ हुई बातचीत का ब्योरा रखा. बैठक में दुर्गा सोरेन का नाम सबसे प्रमुखता से लिया गया. हालांकि उनके नाम पर सहमति नहीं बन पायी.झामुमो के पास ही रहे मुख्यमंत्री पदइसके बाद झामुमो विधायक दल की बैठक शुरू हुई. बैठक में सभी संभावित नामों पर फिर से चर्चा हुई. ओखरकार विधायकों ने चंपई सोरेन के नाम पर सहमति जता दी. साथ ही यह भी कहा गया कि शिबू सोरेन जिसका नाम चाहें, मुख्यमंत्री के लिए प्रस्तावित कर सकते हैं. बैठक में निर्णय लिया गया कि मुख्यमंत्री का पद झामुमो के पास ही रहेगा. अगर मुख्यमंत्री का पद नहीं मिला, तो झामुमो चुनाव में जायेगा.

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आ गृहमंत्री के नांवे

राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आ गृहमंत्री के नांवे खुला चिट्ठी
बधाई राष्ट्रपति महोदया,
बधाई प्रधानमंत्री जी,
बधाई गृह मंत्री जी,
नया साल २००९ खातिर ढेर सारा बधाई.

इ बधाई खाली हमरे तरफ से नइखे. एह बधाई में शामिल बा संउसे दुनिया में फैलल, बिना डर-भय के शक्ति आ शान से रह रहल करोड़न भोजपुरिया भाई लोगन के मन के भाव आ अंतरात्मा के आवाज.
स्वीकार करीं...कुल्ह भोजपुरिया भाई के हार्दिक बधाई ...

दुनिया के सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश के पहिला महिला राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जी के नव वर्ष के बधाई देत आपन राजेन्द्र बाबू याद आ जात बाडन..महामहिम प्रतिभा जी, रौवा याद होइहन राजेन्द्र बाबू, उहे राजेन्द्र बाबू जे भारत के पहिला राष्ट्रपति चुनल गइलन.. राजेन्द्र बाबू भोजपुरिया माटी के सपूत रहलन, अइसन खांटी भोजपुरिया जे राष्ट्रपति भवन में भी आवेवाला भोजपुरिया लोगन से भोजपुरी में बतियावे में संकोच ना करत रहलन.

राष्ट्रपति महोदया, जब राजेन्द्र बाबू चह्तन त भोजपुरी भाषा के संवैधानिक मान्यता मिले में कौनो दिक्कत ना होइत. बाकिर ऊ अपना मातृभाषा के बजाय, राष्ट्रभाषा हिन्दी के मान्यता दिवावे के जादे जरुरी समझलन आ एह तरह से आपन राष्ट्रीय नेता होखे के पहिचान आ प्रमाण देहलन .. भोजपुरिया लोगन के करेजा भी उनकरे नियन विशाल रहल बा " देश पहिले, आपन समाज अउर संस्कृति बाद में ..

बाकिर एह देश के दूसर भाषा के लोग आपन भाषा के बारे में पहिले सोचले, राष्ट्रभाषा के बारे में बाद में. खैर - अब रास्त्रभाषा हिन्दी के पहिचान आ विकास के मसला नइखे रह गइल. हिन्दी के ओकर स्थान, पहिचान, सम्मान - कुल्ह मिल गइल. अब जरुरी बा कि भोजपुरी भाषा के ओकर स्थान, मान, सम्मान मिले...

राष्ट्रपति महोदया, रउवा अगर तनिको रूचि लेब त भोजपुरी भाषा के संबिधान के अठवां अनुसूची में शामिल करे में देरी ना होई .. अगर रउवा प्रयास से अइसन हो सकल त इ राजेन्द्र बाबू के प्रति राउर सच्चा श्रधांजलि आ संउसे दुनिया के भोजपुरिया लोगन के प्रति एतिहासिक योगदान होई. भोजपुरिया लोग राउर एह योगदान के कब ही ना भुला पइहन..

हम एह चिट्ठी के माध्यम से देश के सहज प्रधानमंत्री सरदार मनमोहन सिंह आ धीर गंभीर गृहमंत्री श्री पी चिदम्बरमो जी के नया साल के असीम शुभकामना देत निहोरा करब कि भोजपुरिया भाई लोगन के साथे न्याय करे में देर मत करीं......

प्रधानमंत्री जी, रउवा इतना करुण करेजा वाला सज्जन पुरूष बानीं कि 1984 के दंगा प्रभावित लोगन से माफ़ी मागे में इचको ना हिचिकिनी. एह से राउर कद अउर बढ़ गइल. लोग चाहे जवन कहे. सांच त ई बा कि रउवा प्रधानमंत्री के रूप में राजधर्म के पालन तमाम कठिनाई के बादो कर रहल बानी..एही से भोजपुरिया लोगन के भी भरोसा बा कि रउवा उनको साथे न्याय जरुर करब .. रउवा बिजी होखब, एह से याद दियावे खातिर इ चिट्ठी लिखत बानी. बड़ी बिनम्रता से हमनी के इ कहनाम बा कि जब एह देश में कुछ लाख लोगन के भाषा कोंकणी, डोगरी, बोडो आ मणिपुरी जइसन के संबिधान के अठवां अनुसूची में शामिल कर लिहल गइल त भोजपुरी के काहे नइखे शामिल कइल जात ?

रउवा मालूम बा कि भोजपुरी आज करोड़ों लोगन के मातृभासा हिया.. एकर पढ़ाई देश के ८ गो विश्वबिद्यालय में हो रहल बा, कई देशन में भोजपुरी लोग बहुत बड़ संख्या में बाड़े, आ बिदेस के अलावा भोजपुरी माटी के लोग अपनों देश के पहिला राष्ट्रपति से ले के राउर प्रधानमंत्री के कुर्सी तक पहुंच चुकल बाड़े....

रउआ अगर राष्ट्रभाषा हिन्दी के १० गो सर्वश्रेष्ठ साहित्यकार लोगन के नाम लेब त ओह में जादेतर असल में भोजपुरिये मिलिहन .. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के मूल में भी अवधि के साथे भोजपुरी के महत्वपूर्ण स्थान बा .. भोजपुरी लोक संगीत के लोकप्रियता के बात दुनिया भर के लोग जानत बा.....

गुजरल साल २००८ में भोजपुरी भाषा के जलवा दुनिया के लोग देखलस. भोजपुरी सिनेमा अतना हिट होखे लगली स कि बड़ बड़ फिलिम स्टार अउर फिलिम निर्माता एह भाषा में आपन किस्मत आजमावे लगलन .. भोजपुरी सबके अपनवलस मान देहलस आ दामो देहलस .. एकर सफलता से उत्साहित लोग टीवी चैनल खोलले, राष्ट्रीय स्तर के समाचार पत्रिका निकलले. द सन्डे इंडियन के भोजपुरी संस्करण आ महुवा, हमार टीवी के साथे साथे कई गो भोजपुरी वेब साइट के मिल रहल सफलता भोजपुरी भाषा के लोकप्रियता के जियत जागत प्रमाण बा ..बाकि दुःख के बात ई बा कि एह भाषा के मान्यता के सवाल रउरो सरकार में लाल फीता शाही के शिकार हो गइल बा..एकर मान्यता देबे में रिजर्ब बैंक ऑफ़ इंडिया आ संघ लोक सेवा आयोग के आपति वाला तर्क भोजपुरिया लोगन के कंठ से नीचे नइखे उतरत. एकरा बहाना से एह भाषा के मान्यता देवे में देरी कइला से भोजपुरी भाषा भासी करोड़न लोगन के मन दुखी हो रहल बाड़े.एह साल कुछ महीना के बाद रउवा सभे के जनता के बीच जनादेश मांगे आवे के बा....

हमार निहोरा मानीं - "एह भाषा के मान्यता दीहीं" आ भोजपुरिया लोगन के आशीर्बाद ले के फेर राज काज चलाई .. बिस्वास बा कि रउआ हमनी के बिस्वास राखब .. इहे बा हमनी के नया साल के बधाई.