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Monday, April 19, 2010

इंडियन पैसा लीग

शशि थरूर को आखिरकार जाना पड़ा। सात दिनों तक इस्तीफा देने से इनकार के बाद उनसे इस्तीफा ले लिया गया। आईपीएल-थरूर विवाद ने जो पिटारा खोला है, वह बंद नहीं हुआ। खेल और राजनीति के गहरे संबंधों के दलदल में थरूर धंस जरूर गए, पर इस दलदल में अभी कितने कुर्ते काले व दागदार होंगे, यह सामने आना बाकी है। एक सप्ताह तक संसद ठप रही और थरूर को कैबिनेट से हटाने के बाद ही शुरू हो पाई, पर क्रिकेट में राजनीति के दखल को कम करने की बजाय उस दखल को बढ़ाने की राजनीति भी शुरू हो गई है।





क्रिकेट प्रशासकों पर गाज गिरनी तय है और पैसों के इस खेल में काले धन को उजागर करना राष्ट्रहित में भी है। इतने बड़े पैमाने पर घालमेल और निवेश में पारदर्शिता का अभाव कई घोटालों को जन्म दे सकता है और समय रहते इस पर नियंत्रण आवश्यक है क्योंकि यह मामला टैक्स बचाने से लेकर काले धन के स्रोत जैसे गंभीर मामलों से जुड़ा है। पर यहां इस बात का ध्यान रखना होगा कि सारी कवायद के केंद्र में क्रिकेट को राजनीति से अलग करना होगा, न कि क्रिकेट पर राजनीतिक वर्चस्व को बढ़ावा देना।




संसद के गलियारों में प्रतिनिधियों का गुस्सा जायज है पर जो आवाजें उठ रही हैं वे क्रिकेट पर बेहतर नियंत्रण चाहती हैं, जो भारत के सबसे लोकप्रिय खेल के हित में नहीं है। कुछ वरिष्ठ सांसदों का सुझाव है कि बीसीसीआई का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए और आईपीएल को भंग कर इसे खेल मंत्रालय को सौंप दिया जाए। इस पर बहस होनी चाहिए पर देश का अनुभव कहता है कि खेल के व्यवसायीकरण से इसका फायदा ही हुआ है। जिन खेल संघों पर सरकारी नियंत्रण रहा है उनका हाल देख लें।




क्रिकेट अभी एक निजी व्यवसाय की तरह चल रहा है और इसके अप्रतिम विकास का सबसे बड़ा कारण भी वही है। जो भी कानून निजी व्यवसायों पर लागू होते हैं, वे सब उस पर लागू हों पर उसका सरकारीकरण क्रिकेट के भविष्य के लिए अच्छा नहीं। सरकार इस खेल से जितना दूर रहे उतना बेहतर है।

खेल के व्यवसायीकरण का हौआ खड़ा कर कुछ राजनीतिक लोग क्रिकेट की भलाई कम बल्कि उसकी कमाई में अपना हिस्सा बनाने में ज्यादा रुचि रखते हैं। आशा है आईपीएल-थरूर विवाद से उपजी इस बहस का परिणाम देश में क्रिकेट प्रबंधन की दिशा और दशा सुधारेगा, पर यह भी सच है कि सरकारी नियंत्रण समाधान नहीं।

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