एक वक़्त था
जब हम साथ रहते थे हमेशा
घर में
स्कूल में
मैदान की धूल में।
लेकिन आज
चाह कर भी मिल नही पाते।
ना जाने तुम कहाँ हो...
पर मुझे ख़ुद की भी तो ख़बर नहीं .....
जाने क्या हुआ है
ख़ुद को खो चुका हू
ऐसे में कैसे ढूंढूं तुम्हें
कहां ढूंढूं तुम्हें ?
सोचता था पहले
की तुम बदल गये हो
या फिर मैं ख़ुद बदल गया हू
लेकिन आज
दफ़्तर से आकर एहसास हुआ
कि ग़लती हमारी नही
जीने के लिए पैसा चाहिए
सिर्फ़ दोस्ती और भावनाएँ नही
और मजबूरी में सभी बंधे हैं
आप भी और मैं भी।
जिम्मेदारियों के बहाने
हम खुद तक सिमट जाते हैं,
फिर भी खुद को दोष न दें
आओ इसके लिए वक़्त को ज़िम्मेदार कहें
Tuesday, February 3, 2009
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