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Tuesday, February 17, 2009

बहुत कुछ कहना है ...तुमसे

बहुत बातें अनकहीं रह गईं
दफ्तर से घर लौटते हुए
कहने का करते रहे अभ्यास
घर पहुंच कर बातें बदल गईं
उन बातों पर रोज़मर्रा एक चादर
चढ़ती चली गई, परतें मोटी हो गईं
कोई हवा आएगी एक दिन जब
उड़ा ले जाएगी उन चादरों को
बहुत सी बातें वहीं दबीं मिलेंगी
तब तुम पढ़ लेना, तफ्सील से
बहुत कुछ कहने की चाहत में
क्यों मैं हर दिन तरसता हुआ...
बातें बदलता रहता हूं तुमसे
बात चौदह फ़रवरी की नहीं है
बात है साल के उन हर दिनों की
कुछ कहने का अभ्यास करता हुआ
दफ्तर से जब भी घर आता हूं
बातें बदल जाती हैं तुमसे मिलके।

3 comments:

  1. dubey ji, aapko comments chahiye to word verification hatayen ise hatane ke liye apna dashboard kholen usme setting mein jayen phir comments mein jayen usme niche se teesra option hai show word verification for comments usme yes aur no do option hai usme no par click kar den phir save kar lein.

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  2. चोरी आख़िर कब तक ? रविश जी की ही कविता मिली थी आपको चुराने के लिए... कम से कम नकल करते भी तो अक्ल लगाकर... हूबहू छाप दी... वो भी पूरी की पूरी कविता । समझ में न आए तो रविश जी का ब्लॉग कस्बा को पढ़ लीजिएगा।

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  3. वाह दुबे जी वाह! समय आपके पास बहुत था इत्मिनान से परीक्षा दी जा सकती थी... लेकिन आपने नकल करने की ही ठान रखी थी... जिसे आपने पूरा भी किया, वो भी ऐसे शख़्स के ब्लॉग की कविता जो किसी परिचय का मोहताज नहीं है। धन्यवाद

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