Pages

Monday, January 12, 2009

इस्राइल एक नाजायज़ देश

प्राचीन काल से ही यहूदियों के ऊपर जिस तरह के और जितने अत्याचार हुए हैं उनको जानकर मेरी हमदर्दी आप ही उनके साथ चली जाती है। एक ऐसे लोग जो हमेशा भटकते रहे, और जगह-जगह से भगाए जाते रहे, तार्किक रूप से वे निश्चित ही एक देश के अधिकारी हैं जो उनका अपना हो, जहाँ पर कोई उन्हे ये न कह सके कि निकलो अब हमें तुम्हारे चेहरों से नफ़रत है। मगर वो देश, क्या किसी अन्य लोगों को अपदस्थ कर के बनाया जाना नीति-सम्मत है? और उनकी दारुण स्थिति क्या उन्हे अन्य जनों पर अत्याचार करने का अधिकार दे देती है..? और फिर यहूदियो पर किए गए ऐतिहासिक अपराधों का दण्ड फ़िलीस्तीन के लोगों को दिया जाना कैसे उचित कहा जा सकता है?

नकबा
संयुक्त राष्ट्र में नवम्बर १९४७ में फ़िलीस्तीन के बँटवारे में दुनिया भर के देशों की रायशुमारी हुई बस उन से नहीं पूछा गया जिनके ऊपर ये गाज गिरने वाली थी। उस समय फ़िलीस्तीन में यहूदियों की संख्या ६ लाख और अरबों की संख्या १३ लाख बताई जाती है। यहूदियों के हिस्से में जितनी ज़मीन आई उस से वो क़तई मुतमईन नहीं थे, उन्हे पूरा फ़िलीस्तीन चाहिये था, जेरूसलेम समेत।

इसीलिए इज़राईल के बनने की घोषणा के साथ ही उन्होने फ़िलीस्तीनी अरबों को खदेड़ देने के लिए उनके गाँव के गाँव का जनसंहार शुरु कर दिया। हगनह और दूसरे हथियारबन्द दस्ते अरबों के गाँवों में जाते और लोगों को अंधाधुंध मारना शुरु कर देते। पहले इज़राईल का कहना था कि अरब आप ही अपने घरों को छोड़कर भाग खड़े हुए ताकि अरब देशों के संयुक्त आक्रमण के लिए रास्ता साफ़ किया जा सके। ये सरासर झूठ था।

खुद इज़राईल मानता है कि डेरा यासीन नाम के गाँव में यहूदी दस्तों ने बमों और गोलियों की वर्षा कर के ११० लोगों की जान ले ली। इन निहत्थे और बेगुनाह लोगों में औरतें और बच्चे भी शामिल थे। और ये घटना कोई अपवाद नहीं थी। क्योंकि अब तो खुद इज़राईल के इतिहासकार मानने लगे हैं कि १९४७ से १९४९ के बीच इज़राईली सेनाओं ने ४०० से ५०० अरब गाँवों, क़स्बों और कबीलों पर हमला कर के उन्हे अरबों से खाली करा लिया। ये जातीय हिंसा अपने परिमाण में हिटलर द्वारा की गई यहूदियों की हत्याओं से संख्या में ज़रूर कम थी पर चरित्र में नहीं।

इज़राईली जिस घटनाक्रम को इज़राईल की स्थापना के नाम से दर्ज करते हैं उसे फ़िलीस्तीनियों ने नकबा कह कर पुकारा- एक महाविपत्ति जो इज़राईल के हाथों उन पर आ पड़ी। वैसे अरबी भाषा में इज़राईल का मायने मृत्यु का देवता यमराज होता है। और यह अर्थ आज का बना नहीं, पुराना है।

अरब राष्ट्र
१४ मई को इज़राईल के बनने के अगले दिन ही पाँच अरब देशों- मिस्र, जोर्डन, सीरिया, लेबनान और इराक़- ने मिलकर इज़राईल पर हमला कर दिया। इज़राईल ने अपनी तैयारियाँ की थीं मगर इतनी नहीं थी कि वो अकेले पाँच देशों की सेनाओं का मुक़ाबला कर सके। लेकिन उसकी सहायता की रूस ने अपने सहयोगी चेकोस्लोवाकिया के माध्यम से। उल्लेखनीय है कि रूस में भी यहूदियों के प्रति नफ़रत का एक लम्बा इतिहास रहा है और इज़राईल को विस्थापन करने वालों में सबसे बड़ी संख्या जर्मनी के अलावा पूर्वी योरोप और रूस से ही थी।

बेहतर और विकसित हथियारों की इस अप्रत्याशित मदद से अचानक सैन्य संतुलन इज़राईल के पक्ष में हो गया और अरब सेनाएं अपना मक़सद पूरा नहीं कर सकीं। बीच-बचाव कर के युद्ध विराम करा लिया गया। मगर तब तक वेस्ट बैंक (जोर्डन नदी के पश्चिमी किनारे का वो फ़िलीस्तीनी हिस्सा जहाँ बँटवारे के बाद का अरब राज्य क़ायम होना था) पर जोर्डन का और गाज़ा पट्टी पर मिस्र का क़ब्ज़ा हो गया था।

इस क़ब्ज़े के १९ साल तक गाज़ा और वेस्ट बैंक के भू-भाग पर फ़िलीस्तीनी राज्य बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई। फ़िलीस्तीनी लगातार मिस्र और जोर्डन के शासन में शरणार्थियों की तरह रहते रहे। क्योंकि सच यही है कि फ़िलीस्तीन एक अलग राज्य के रूप में अरबों के बीच कभी अस्तित्व में नहीं रहा, वो हमेशा एक अरब राष्ट्र के अंग के रूप में या फिर ऑटोमन साम्राज्य के अंग के रूप में रहा। और वे पाँचों अरब देश इज़राईल के खिलाफ़ इसलिए नहीं थे क्योंकि उसने फ़िलीस्तीन, एक स्वतंत्र राष्ट्र की अवहेलना की थी। नहीं। बल्कि इसलिए कि उसने एक अरब राष्ट्र की अवहेलना की थी जो अलग-अलग देशों में बँटा हुआ था। देश एक भौगोलिक सत्ता है जबकि राष्ट्र एक मानसिक संरचना।

आधुनिक राष्ट्र निर्माण अरबों में प्राकृतिक रूप से नहीं आ गया जैसे हम भारतीय भी मुग़ल सत्ता के क्षीण होते ही अपने एक स्वतंत्र लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण में संलग्न नहीं हो गए। ये चेतना तो हमारे भीतर पैदा हुई अंग्रेज़ों के साथ संघर्ष करते हुए। इसी तरह अरबों के जो देश आज दुनिया के नक़्शे पर है वो अलग-अलग देश ज़रूर हैं उनकी सरकारे अपने राजनैतिक सत्ता और उसके हित के अनुसार अलग-अलग निर्णय लेकर एक दूसरे के खिलाफ़ भी खड़ी दिखाई पड़तीं हैं। मगर राष्ट्र के बतौर अरब जन शायद अभी भी एक हैं। इसीलिए वो किसी भी मसले पर एक स्वर में अपनी राय व्यक्त करते हैं।

सम्भवतः हमारे अपने प्रदेश बिहार, बंगाल, तमिलनाडु, गुजरात, केरल, राजस्थान, पंजाब, मणिपुर आदि भाषा, संस्कृति के स्तर पर एक दूसरे से अधिक जुदा है बनिस्बत इन अरब देशों के। वे अलग हैं क्योंकि नक़्शे पर लकीर खींच के उन्हे अलग-अलग कर दिया गया। शायद फ़िलीस्तीन की सरकार ही सबसे लोकतांत्रिक सरकार है जिसे इज़राईल और उसके तमाम दोस्त देश बरसों तक आतंकवादी कह कर दुरदुराते रहे।

फ़िदायीन हमले
१९४७-४९ के नकबे में न जाने कितने लोग मारे गए और तक़रीबन आठ लाख अरब अपने घरों और ज़मीनों से बेघर हो गए। बेघर हुए फ़िलीस्तीनियों में से कुछ ऐसे भी थे जिन्होने वापस लौटकर इज़राईल के शासन में ही सही, अपनी ज़मीन को पाने की कोशिश की। मगर इज़राईल ने तुरत-फ़ुरत क़ानून पारित कर दिया था कि भागे हुए फ़िलीस्तीनियों को वापस लौटने नहीं दिया जाएगा और ऐसी कोशिश करने वालों को घुसपैठी माना जाएगा।

दूसरी तरफ़ दूसरे बाक़ी दुनिया और अरब देशों से यहूदी भाग-भाग कर इज़राईल में चले आए। और इज़राईली सरकार ने उन्हे भगाए गए फ़िलीस्तीनियों की ज़मीनों पर बसाना शुरु कर दिया। ये क़दम अपने घरों को लौटने की फ़िलीस्तीनियों की आशाओं पर कुठाराघात था। लेकिन ये क़ानून बनाने भर से फ़िलीस्तीनी रुक नहीं गए, जो अपनी ज़मीन पाने के लिए थोड़ा संघर्ष करने को भी राजी थे। सीरिया, मिस्र और जोर्डन की सीमाओं से ये फ़िलीस्तीनी नागरिक इज़राईल की सीमा में प्रवेश कर के अपने घरों को लौटने की कोशिश में इज़राईलियों के साथ जिद्दोजहद में उतरने लगे। और वे मरने-मारने को तैयार थे।

इज़राईल का कहना है कि १९५० से १९५६ के बीच ऐसे फ़िदायीन हमलों में ४०० इज़राइलियों की मौत हुई। ये फ़िदायीन तो मारे ही जाते और जवाब में इज़राईली सेना सीरिया, मिस्र और जोर्डन में उनके ठिकानों पर हमले करती जिससे और भी अधिक ग़ुस्से के बीज पड़ते और नफ़रतें और गहरी होतीं। १९५६ में गाज़ा पट्टी में खान युनूस नाम की एक जगह में घुसकर इज़राईली सेना नें २७५ फ़िलीस्तीनियों की हत्या की और राफ़ह नाम के एक शरणार्थी कैम्प पर हमला कर के १११ की।

ये है वो बुनियाद जिसके आधार पर आज तक इज़राईल अपने घर, अपनी ज़मीन, अपने देश को वापस लेने के लिए हक़ की लड़ाई लड़ रहे फ़िलीस्तीनियों को आतंकवादी कहता आया। मज़े की बात ये है कि इज़राईल एक क़ानूनी मगर नाजायज़ देश होते हुए भी ग़ैर-फ़ौजियों की हत्या करते रहने के बावजूद आतंकवादी नहीं कहलाता। क्यों? क्योंकि उसकी तरफ़ से हत्याएं सेना की वर्दी पहनने वाले लोग करते हैं? क्या एक वर्दी पहनने भर से बेगुनाहों के खिलाफ़ हिंसा जायज़ हो जाती है?

छै दिन की लड़ाई


अरब देशों और इज़राईल के बीच अगला बड़ा संकट तब खड़ा हो गया जब १९५६ में मिस्र के राष्ट्रपति नासिर ने स्वेज़ नहर का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इसके पहले इस पर ब्रिटेन और फ़्रांस का अधिकार होता था। इस से इन दोनों देशों को भारी राजनैतिक, सामरिक और आर्थिक धक्का पहुँचा जिसका खामियाज़ा पूरा करने के लिए वे मिस्र पर आक्रमण करने तक की सोचने लगे। मगर फिर स्वयं हमला न कर के ये ज़िम्मेदारी इज़राईल के कंधो पर डाल दी गई जो मिस्र से पहले ही चोट खाया हुआ था क्योंकि उसने स्वेज़ तो इज़राईल के लिए बंद ही की हुई थी साथ-साथ १९५१ से ही तिरान जलडमरू मध्य से लाल सागर की ओर निकलने वाले उसके जहाजों का आना-जाना बंद कर रखा था। इज़राईल ने मिस्र पर आक्रमण किया ज़रूर मगर उसे पीछे हटना पड़ा क्योंकि सऊदी अरब ने ब्रिटेन को तेल की आपूर्ति बंद कर दी और अमरीका, रूस आदि ने भी दबाव डाला।

१९६७ में अरब देशों को फिर यह अन्देशा हुआ कि इज़राईल उन पर आक्रमण करने वाला है और उन्होने इस से बचाव की तैयारी शुरु कर दी। मगर दूसरी तरफ़ इज़राईल ने उनकी सारी तैयारियों को धता बताते हुए उन पर प्रि-एम्प्टिव स्ट्राइक्स कर डाली। मिस्र के वायु-यान हैंगर में खड़े-खड़े तबाह हो गए। जोर्डन की सेनाओं को खदेड़ दिया गया और सीरिया को पीछे धकेल दिया गया।
कुल छै दिन चली इस लड़ाई के बाद इज़राईल ने संयुक्त राष्ट्र के बँटवारे के आधार पर बने अरबों के हिस्से वाले पूरे फ़िलीस्तीन को निगल लिया और अपने हर पड़ोसी की ज़मीन भी दबा ली। बस एक लेबनान को छोड़कर जिसकी सीमा को वो बाद में कई बार दबाता रहेगा। स्वेज़ नहर के किनारे तक मिस्र का सिनाई का रेगिस्तान, जोर्डन से वेस्ट बैंक और सीरिया से गोलन हाईट्स छीनने के परिणाम स्वरूप एक बार फिर फ़िलीस्तीनी शरणार्थियों का सैलाब उमड़ पड़ा, जो जान बचा कर वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी से दूसरे अरब देशों में घुस गए।

इस तरह की मध्ययुगीन आक्रमणकारी नीति चलाने की चौतरफ़ा निन्दा हुई और इज़राईल पर सब तरफ़ से दबाव पड़ा कि वो पड़ोसी देशों की ज़मीन वापस करे। इज़राईल सिर्फ़ एक शर्त पर ये ज़मीन वापस करने को राजी था- पड़ोसी देश उसे एक वैध देश के रूप में मान्यता दे दें और उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लें। ये एक बात ज़ाहिर कर देती है कि इज़राईल खुद ये बात जानता है कि वो एक अवैध देश है और उसने दूसरों की ज़मीन पर अवैध क़ब्ज़ा कर के अपना देश बनाया है तभी उसके लिए वैधता का ये प्रमाण-पत्र इतना ज़रूरी हो जाता है।

इज़राईल को आगे घुटने टेककर उसे मान्यता देने में पहल मिस्र की तरफ़ से हुई। बदले में इज़राईल ने उसे सिनाई का क्षेत्र लौटा दिया। इस समझौते के ईनाम के तौर पर मिस्र के राष्ट्रपति अनवर सादात को नोबल शांति पुरुस्कार दिया गया जिसे उन्ह्ने इज़राईल के राष्ट्रपति के साथ साझा। लेकिन अरब जनता इस समझौते से खुश नहीं थी। इस समझौते के दो साल बाद ही सादात की हत्या कर दी गई।


यदि विश्व एक मोहल्ला होता तो ये मामला कैसा दिखता ज़रा ग़ौर करें
आप के पूरे मोहल्ले के बेचारे, बेघर, और मज़्लूम लोग एक घर पाने के लिए बेताब हैं। आप को कोई ऐतराज़ भी नहीं मगर वे कहते हैं कि आप के घर में अपना घर बनाएंगे और मोहल्ले वाले कहते हैं कि हाँ-हाँ ठीक तो है.. क्या उन्हे एक छत का हक़ भी नहीं है। विचार नेक है और आप को भी हमदर्दी है उन बेघर मज़्लूमों से। मगर आप के घर में.. ये सोच कर ही आप के होश फ़ाख्ता हो जाते हैं।

फिर ये बेघर लोग आकर डेरा डाल देते हैं और एक अभियान के तहत। और फिर और भी जितने मज़्लूम हैं उन सब को आप ही के घर में आ कर बसने की दावत दे डालते हैं और जब आप विरोध करते हैं तो आप से लड़ते हैं, और आप के घर वालों की हत्याएं करते हैं। मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। फिर मोहल्ले वाले एक पंचायत कर के आप के घर के दो हिस्से कर देते हैं, जिस में सब लोग वोट डालते हैं सिवा आप के।

इसी बीच आप जो अब सड़क पर आ चुके हैं घर में घुसने की कोशिश में थोड़ा हाथ पैर चलाते हैं, उनके घर के सदस्यों को मारते हैं तो वो घर में घुसे मज़्लूम लोग, आप को आतंकवादी घोषित कर देते हैं और मोहल्ले के दबंग लोग उनका साथ देते हैं। उस के बाद जब भी इस घर के स्वामित्व की बात उठती है तो वो आतंकवादियों से बात न करने की नीति दोहरा देते हैं। कहते हैं कि तभी बात करेंगे जब आतंकवाद छोड़ दोगे यानी अपने घर में वापस घुसने की कोशिश। और ये मान लोगे कि घर के स्वामी वे ही मज़्लूम लोग हैं। इन शर्तों को मान लिया तो फिर आप बचेंगे कहाँ?

ग़नीमत ये है कि आपके पड़ोसी अच्छे हैं और आप का साथ देते हैं। मगर जब आप के पड़ोसी आप की मदद के लिए आते हैं तो वे मज़्लूम न सिर्फ़ उन्हे खदेड़ बाहर करते हैं बल्कि उनके घरों की भी ज़मीन दबा लेते हैं। हार कर पडो़सी अपनी-अपनी ज़मीन वापसी की कोशिश में मशग़ूल हो जाते हैं। मज़्लूम लोग उनसे कहते हैं कि पहले तुम साइन कर के हमें इस घर का असली मालिक स्वीकार कर लो तो हम तुम्हारी ज़मीन वापस कर देंगे।
पड़ोसी को डर है कि आप का घर वापस दिलाने के चक्कर में कहीं वो भी आप की तरह सड़क पर आ गया तो? तो अब पड़ोसी अपनी ज़मीन की सोचे कि आप के घर की? बताइये! और ये भी बताइये कि आप के घर में घुस के बैठे उन मज़्लूमों को अब मज़्लूम कहना कितना उचित है?

इस लेख की पहले की कड़ियाँ -
जो वादा किया..
रचना एक नए देश की
अराफ़ात, हमास, शांति वार्ताएं और इन्तिफ़ादा पर लिखना अभी बाक़ी है.. पर थक सा रहा हूँ..

1 comment:

  1. dubey ji, blog jagat mein swagat hai aapka, aapka yah lekh bahot achcha laga, please ek baar mere blog par bhi aayen address hai http://zafar-imam.blogspot.com

    ReplyDelete