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Friday, January 23, 2009

दिल्ली में बिहार -यूपी के भइया

दिल्ली सरकार ने जब दिल्ली भोजपुरी-मैथिली अकादमी का गठन किया, तब ऐसा लगा था कि कम से कम राष्ट्रीय राजधानी में भाषाई अल्पसंख्यकों के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक अधिकारों को महत्व दिया जाने लगा है। तब मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने उन भाषाओं और उसे बरतने वाले समाज के विकास योजनाओं की घोषणा करके बडी उम्मीद भी जगा दी थी। उन दिनों राज्यपाल तेजेन्द्र खन्ना के एक बयान और प्रवासी आबादी को महानगर की आधारभूत सुविधाओं पर अनावश्यक बोझ ठहराकर मुख्यमंत्री फजीहत झेल चुकी थी।

इसलिए अकादमी के गठन से समझा गया कि कांग्रेस आगामी दिनों में पुरबिया समुदायों के बीच अपनी पुरानी पकड को फिर से बहाल करने के प्रयास करने वाली है। लेकिन जब विधानसभा चुनावों के अवसर आए तो देखा गया कि पार्टी ने उस समुदाय को कोई खास महत्व नहीं दिया।

उत्तर भारतीय लोगों के खिलाफ महाराष्ट्र मेंं कई महीनों से जारी उपद्रव के लगातार अधिक हिंसक होते जाने और उसे संभालने में कांग्रेस सरकार की असफलता से सहज ं अनुमान लगता है कि दिल्ली विधानसभा के इन चुनावों पर राजठाकरे फैक्टर का प्रभाव होगा। और पुरबिया लोग एकजुट होकर वोट डालेगे। इसका लाभ उठाने का प्रयास कंाग्रेस की मुख्य प्रतिद्वद्वी पार्टी भाजपा करेगी। पर पार्टी ने आश्चर्यजनक ढंग से पूरे मसले से कन्नी काट ली। इससे साफ है कि भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों को स्वीकार नहीं करने में राष्ट्रीय पार्टियों में एक अघोषित एकता बनी हुई है। सत्ता की दावेदार दोनों बडी पार्टियों ने प्रवासी समुदायों को संख्या के अनुरुप उम्मीदवारी नहीं दी। यही नहीं, चुनाव प्रचार के दौरान भी उनसे जुडे मुददे नहीं उठे। हालाकि निजी उद्यम से राजधानी के समाज में महत्वपूर्ण स्थान पर प्रतििष्ठत होने के बलबुते कई लोग सपा, बसपा जैसी पार्टियों के उम्मीदवार बन गए हैं। निजी प्रभाव और वोट के गणित अनुकूल होने पर उनमें से कुछ को चुनावी जीत भी हासिल हो सकती है। लेकिन प्रांत आधारित पार्टियों की स्वीकार्यता अन्य प्रांतों से आए लोगों में कम होने से उनकी जीत का भी स्थानीय राजनीतिक माहौल पर कोई खास असर नहीं होने वाला।

ठाकरेगिरी के निशाना वर्षों से वहां बसे और किसी काम के सिलसिला में कुछ दिनों के लिए गए दोनों तरह के लोग बने। समूचे उपद्रव की रूपरेखा घोर सांप्रदायिक और वर्चस्ववादी है। परिस्थिति नििश्चत रूप से ऐसी है कि देश के बुनियादी राष्ट्रीय चरित्र की रक्षा के लिए समूचे राजनीतिक तंत्र को सक्रिय हो जाना चाहिए। लेकिन पूरे मसले को गलती से या चालाकी से महाराष्ट्र बनाम बिहार व उत्तरप्रदेश का रूप दे दिया गया। प्रवासी कहलाने वाले समुदायों के हित इससे नहीं सधने वाले। उनके हित स्थानीय राजनीति में सम्मानजनक हिस्सेदारी से सधेगे। और यह काम तथा कथित राष्ट्रीय पार्टियों से ही सधने वाले हैं। बौखलाहट से भरे राजठाकरे इस बात को अव्यक्त ढंग से कहते हैं, लेकिन उनके घर के सामने छठपूजा करने की धमकी देकर लालू यादव मुकर जाते हैं। इससे परिस्थिति जटिल होती गई है। इस सच को स्वीकार करने से पूरा राजनीतिक तबका कतरा जाता है कि विभिन्न क्षेत्रों से आकर स्थानीय हो गए भाषाई अल्पसंख्यकों के कानून सम्मत अधिकार और सुरक्षा के ठोस उपाय किए जाए।

रोजी-रोजगार के चक्कर में देश के विभिन्न इलाकों में बसी आबादी के राजनीतिक अधिकारों को राष्ट्रीय पार्टियों ने लगातार उपेक्षित रखा है। विधानसभा चुनावों के ताजा दौर में भी यह बात प्रमाणित हो रही है। इसका कारण और परिणाम है कि देश की संवैधानिक संस्थाओं में 23 वें स्थान पर आने वाला भाषाई अल्पसंख्यक आयोग महज सजावटी वस्तु बना हुआ है। बहुमत आधारित जोडतोड की राजनीति में संवैधानिक संस्थाएंं कितनी लाचार हो सकती हैं, इसका नमूना यह आयोग है। यह स्थिति तब है, जब परिसीमन के बाद दिल्ली में बिहारी समेत सब भाषाई अल्पसंख्यक समूदायों का गणित ऐसा बना है कि उनका दबदबा काफी बढ जाना चाहिए। राजधानी की आबादी संरचना के जानकार लोगों का कहना है कि दिल्ली विधानसभा के 70 चुनावक्षेत्रों में करीब 45 सीटें ऐसी हैं, जिसमें प्रवासी समुदायों के समर्थन के बिना कोई नहीं जीत सकता। इसका यह अर्थ भी है कि इन समुदायों के एकजुट होकर वोट करे तो किसी को हराया जा सकता है। इन क्षेत्रों में नरेला, बुराडी, किराडी, मुंडका, रिठाला, नांगलोई, द्वारका, मटियाला, नजफगढ, पालम, मुस्तफाबाद, करावलनगर, जनकपुरी, संगम बिहार, देवली, घोंडा, जहांगीरपुरी, तिमारपुर, रोहताशनगर, नंदनगरी, जाफराबाद, सीलमपुर, सीमापुरी, यमुना विहार आदि चौबीस क्षेत्रों में बिहारियों का दबदबा और प्रवासी वोटरों की संख्या 20 प्रतिशत से 45 प्रतिशत बताया जाता है। इसके अलावा बादली, मंगोलपुरी, त्रीनगर, सदर, चांदनी चौक, मटिया महल, बल्लीमारान, कालकाजी, तुगलाकाबाद, बदरपुर, ओखला, त्रिलोकपुरी, कोडली, गांधी नगर, बाबरपुर, गोकुलपुरी, आदर्श नगर, बिजवासन, सुल्तानपुरी और छतरपुर आदि में प्रवासी वोटरों की संख्या 10 से 20 प्रतिशत के बीच है।

दिल्ली को केन्द्रशासित प्रदेश से उन्नत कर संपूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए हुए आंदोलन के जमाने से ही महानगर के सामाजिक ढांचे में आए परिवर्तन की चर्चा तो हर पार्टी के नेता करते हैं। पर जब उसपर अमल करने और राजनीतिक प्रतिनिधित्व में उस सामाजिक ढांचा को प्रतिबिंबित करने का अवसर आता है, तब सभी पुराने ढर्रे पर चले जाते हैं। पुराने ढर्रे का अर्थ ऐसे सजावटी नेताओं को पेश करना जिनको मेहनत-मजदूरी करके गुजर बशर करने वाले प्रवासियों के सुख-दुख का जिन्हें कोई जानकारी नहीं होती। हालांकि दिल्ली या अन्य जगहों पर भोजपुरी और मैथिली भाषी लोगों के प्रतिनिधियों विधानसभा भेजने में राष्ट्रीय पार्टियों की उदासीनता के लिए सिर्फ उन पार्टियों को ही दोष नहीं दिया जा सकता। इन समुदायों में किसी तरह की राजनीतिक गतिविधिं नहीं होती। छठ पूजा की आयोजन समितियों के अलावा साझा हित का कोई सामुहिक प्रयास नहीं होता। इसतरह के किसी आयोजन का नाम नहीं लिया जा सकता, जिसमें सामुहिकता की भावना का विकास हो। गिनती के लिए जितनी भी संस्थाएं है, उनपर कुद खास लोगों का कब्जा हो गया है और सार्वजनिक कार्यों के लिए बनी संस्थाओं का संचालन ट्रस्ट के अधिकारी वर्ग के निजी सनक पर होता है। राजनीतिक पार्टियों में इन समुदायों के कम ही लोग हैं और जो लोग हैं भी, उनके लिए निजी हित सर्वोपरि हैं। अब पूनम आजाद को ही क्या कहेगे? पहले दिल्ली में सक्रिय हुईं। फिर बिहार भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष बना दी गई। इधर कुछ दिनों से फिर दिल्ली भाजपा में पदाधिकारी हैं। लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में मनपसंद सीट से उम्मीदवारी नहीं मिलने पर नाराज होकर पार्टी और पदों से इस्तीफा दे दिया, फिर मान भी गई और चुनाव प्रचार में भी देखी जा रही हैं।

आजादी के समय दिल्ली की राजनीति पर चांदनी चौक के मुसलमान और बाहरी दिल्ली के ग्रामीण आबादी का वचस्व था। बाद में पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के लिए कई कालोनी बसाई गई। राजेन्द्र नगर, पटेल नगर, लाजपत नगर, मोतीनगर, उत्तमनगर, राजा गार्डेन, रजौरी गार्डेन, मुखर्जी नगर के अलावा कालकाजी और शाहदरा क्षेत्र में कई नई बस्तियों का जन्म उसी दौरान हुआ। दिल्ली की राजनीति पर इन शरणार्थी के साथ साथ पंजाबी भाषा या संस्कृति का वर्चस्व हो गया, लेकिन आजादी के पहले से बिहार, उत्तरप्रदेश और देश के अन्य इलाकों से रोजगार के लिए दिल्ली आने और यहीं बस जाने वाले लोगों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के प्रश्न की पूरी अनदेखी होती रही। उन प्रवासी समुदायों में मजदूर तबका के लोग अधिक थे। उनके लिए सिर छिपाने लायक एक ठिकाना मिल जाना अधिक जरूरी था। पुनर्वास बस्तियों में स्थाई ठिकाना तो मिला ही, उसके साथ-साथ कांग्रेस को वोट दंने का प्रचलन भी हो गया। लेकिन सिर छिपाने के ठिकाने के बाद जिन चीजों की जरूरत होती है, उनके लिए टकटकी लगी रही। घर के बाद जो सब मिलना चाहिए, उनके लिए टकटकी लगी रह गई।

पाकिस्तान से विस्थापित होकर आई पंजाबी शरणार्थी और सामान्य वणिक वर्ग में पैठ होने से भाजपा और उसकी पूर्ववर्ती जनसंघ का मजदूर वर्ग तथा मलिन बस्तियें से दूरी बनी रही। लेकिन कांग्रेस हरकिशन लाल भगत जैसे नेता के माध्यम से इन लोगों के बीच सक्रिय थी. इससे पुनर्वास बस्तियों में कांग्रेस के दबदबा की स्थिति आरंभ से बनी रही। लेकिन कांग्रेस ने कभी इन समुदायों के किसी व्यक्ति को सरकार में हिस्सेदार नही बनाया। उन समुदायों के बीच राजनीतिक नेतृत्व विकसित करने का कोई प्रयास नही किया गया। अपना बलबूते चुनाव जीतने वालों में से किसी को पार्टी में ही पर्याप्त महत्व दिया। इसके बाद भी पूरबिया वोट परंपरागत रूप से कांग्रेस के साथ बनी रही। हरकिशन सिंह के विद्रोह के जमाना में पहली बार लाल बिहारी तिवारी भाजपा से लोकसभा सदस्य चुने गए थे। लेकिन उस स्थिति को भाजपा बनाकर नही रख सकी। भाजपा की हालत आरंभ से ही ऐसी रही कि बस्तियों वाले क्षे़़त्रों से भाजपा नेता उम्मीदवार बनना नहीं चहते। बाद में प्रवासी नेता के नाम पर कुछ सजावटी नेताओं को आगे बढाने के प्रयास होने लगे। इसबार भी कोई ठोस प्रयास नही दिखता। इससे बसपा और सपा की ओर झुकाव की सहज संभावना बनी है। हालंकि उम्मीदवारों के निजी प्रभाव से उन पार्टियों को कहीं-कही निर्णायक समर्थन मिल भले मिल जाए, भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों के राजनीतिक अधिकार को सम्मान और जानमाल की सुरक्षा के प्रश्न हल नहीं होंगे।

करीब 30 लाख आबादी और 45 चुनाव क्षेत्रों में निर्णायक दबदबा रखने वाली पूरबिया आबादी में निवर्तमान महाबल मिश्र के अलावा कांग्रेस की ओर से आमोद कंठ और अनिल चौधरी को उम्मीदवारी दी गई। भाजपा की हालत अधिक खराब है। उसने पूरे समुदाय से महज एक अनिल झा को पार्टी उम्मीदवार बनाया है। पूनम आजाद जैसी नेत्री को टिकट नहीं दिया गया। उनके विद्रोह को संभावने के लिए जरूर पार्टी को मशक्कत करनी पडी। कांग्रेस और अब भाजपा में भी इन समुदायों के वोट के महत्व की बात होती जरूर है। यही कारण है कि छठपूजा के आयोजन में सभी बडे नेता पहुंचे और भाजपा के नेताओं ने सरकार बनने पर छठपूजा के दिन सरकारी छूटटी देने का भरोसा भी दिलाया। परन्तु राजनीतिक हिस्सेदारी के प्रश्न को कालीन के नीचे दबा दिया। चुनाव घोषणापत्र में पंजाबी को द्वितीय राजभाषा बनाने की घोषणा हुई है, पर भोजपुरी-मैथिली भाषा और अन्य नवगठित अकादमी के भविष्य के बारे में कुछ नहीं कहा गया है। दोनों पार्टियों के उम्मीदवारों की सूची से बहुत सारी बातें साफ हुई है। संगम बिहार से कांग्रेस के प्रत्याशी आमोद कंठ दिल्ली पुलिस में आला अधिकारी रहे हैं और एक एनजीओ चलाते हैं। उनकों इस समुदाय का स्वाभाविक नेता मानने में किइनाई सिर्फ एक है कि वे आभिजात्य वर्ग के हैं। भोजपुरी या मैथिली भाषी समाज के स्वाभाविक नेता होने मे कठिनाई है। द्वारका से महाबल मिश्र भी दिल्ली वाला अधिक हो गए हैं, पूरबिया समुदायों में उनकी कोई खास गतिविधि नही रहती। इसबार तो परिसीमन के वजह से पुराने क्षेत्र की कइ बिहारी बस्तियां उनके चुनाव क्षेत्र से बाहर हो गई हैं। भाजपा ने जिन अनिल झा को किरारी क्षेत्र से उम्मीदवर बनाया है, उनके खिलाफ पार्टी से विद्रोह करके एक पुष्पराज खडे हो गए हैं। जाहिर है कि अनिल झा की हैसियत एकतरह से उस समुदाय के निर्दलीय उम्मीदवार जैसी हो गइ है।

ऐसी परिस्थिति में इन चुनावों में लगता है कि सपा, बसपा आदि पार्टियों से उम्मीदवार बने निजी उद्यम से प्रतििष्ठत हुए लोगों के पीछे पूरबिया वोटर गोलबंद होेना चाहेगे। कांग्रेस की राजनीति पिछले कुछ दिनों से जिसतरह की रही है, उसकी वजह से इन चुनावों में बसपा शायद अधिक बेहतर स्थिति में है। उसको मलिन बस्तियों मेंं समर्थन मिलने की उिम्मद है। ग्रामीण क्षेत्र की दलित आबादी में भी अच्छा खासा समर्थन मिलने के आसार हैं। अगर पुरबिया वोटर राष्ट्रीय पार्टियों को सबक सिखाने के मानस में आ गए तो इसके बाद होने वाले चुनावों में शायद उन समुदायों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व के सवाल केा इसतरह उपेक्षा नही की जा सकेगी। इतना तय है कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी और मैथिलीभाषी वोटरों के साथ अगर उत्तरांचल व अन्य दूरवर्ती राज्यों के प्रवासी वोटर एकत्र हो जाएं, तो किसी राजनीतिक समीकरण को ध्वस्त कर सकते हैं। हालांकि वर्तमान राजनीतिक रंगढंग के बारे में यही कहा जा सकता है कि भाषाई अल्पसंख्यक समुदायों की राजनीतिक भागीदारी के प्रश्न पर किसी का ध्यान नहीं है।

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