Friday, January 9, 2009
नफ़रत के प्रतीक बने नेता!
केरल के मुख्यमंत्री अच्युतानंदन बेंगलुरु आये. एक दिसंबर को. मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के घर जाने के लिए. मुंबई प्रकरण के शहीद, बिहार रेजीमेंट के मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता ने मुख्यमंत्री अच्युतानंदन से मिलने से मना कर दिया. फ़िर भी मुख्यमंत्री उतावले और बेचैन थे. सांत्वना देने के लिए. घर के अंदर संदीप के पिता चीखने-चिल्लाने लगे थे. नहीं मिले. उन्होंने कहा, किसी सियासत की जरूरत नहीं.प गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, अनामंत्रित हेमंत करकरे पपरवार की मदद में दौड़ पड़े. एक करोड़ देने की घोषणा की. वह स्वर्गीय करकरे की पत्नी से मिलना चाहते थे. उनकी पत्नी ने नरेंद्र मोदी से मिलने से इनकार कर दिया. पैसा लेने से भी मना कर दिया.प एनडीटीवी को नेताओं के प्रति नफ़रत और घृणा से भरे दो लाख एसएमएस मिले हैं. एनडीटीवी के कार्यक्रम में लोगों ने कहा किसी नेता को ‘टॉक शो’ में आमंत्रित न करें.प दो दिन पहले मुंबई में लोगों ने बड़ा जुलूस निकाला. उनके हाथ में तख्तियां थी. बैनर थे. उन पर लिखे थे, नेताओं की इतनी सुरक्षा, निदरेष जनता की हत्या? नेताओं की सुरक्षा वापस लें, वगैरह-वगैरह. यह भी लिखा कि अब भारतीय जग गये हैं, पर िहदुस्तान के नेता कब जगेंगे?प मराठी मानुष राज ठाकरे भी हेमंत करकरे के घर मिलने जाना चाहते थे. हेमंत करकरे की बहादुर विधवा पत्नी ने मिलने से मना कर दिया.प तीन रोज पहले एक सर्वे हआ. सर्वे के संदेश साफ़ हैं. लोग नेताओं से बहत खफ़ा हैं. 86 फ़ीसदी लोग मानते हैं कि मुंबई में आतंकवादी हमले रोके जा सकते थे. 82 फ़ीसदी लोग कहते हैं कि नेताओं में आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ने की इच्छा नहीं है. 84 फ़ीसदी लोग मानते हैं कि सरकार, आतंकवाद के खिलाफ़ लड़ने के लिए गंभीर काम नहीं कर रही. ये घटनाएं दीवाल पर लिखी भविष्य की इबारतें हैं. नेताओं के प्रति गहरी घृणा और नफ़रत समाज में है. इन घटनाओं के संदेश, अगर नेता और राजनीतिक दल समझने को तैयार नहीं हैं, तो वे देश को एक खतरनाक अंधेरे और अनिश्चित भविष्य में झोंक देंगे. फ्रांस में राजाओं के खिलाफ़ क्रांति, रूस में जारशाही के खिलाफ़ नफ़रत और चीन में हई क्रांति के इतिहास से भारतीय राजनीतिज्ञ सीख सकते हैं. इतिहास के बारे में मान्यता है कि वह भविष्य को समझने में मदद करता है. भारतीय राजनेता, सरकारें और शासक अपने कामकाज, अपनी जीवन संस्कृति और आचरण से अपने लिए घृणा और नफ़रत ही आमंत्रित कर रहे हैं. जो नेता यह समझते हैं कि जाति, धर्म और क्षेत्रीयता की उफ़ान पर वे इतिहास बनायेंगे, सत्ता पायेंगे. उनके लिए ऊपर की घटनाएं गंभीर चेतावनी हैं. केरल के मुख्यमंत्री भागे-भागे बेंगलुरु पहंचे. मेजर उन्नीकृष्णनन के पपरवार से मिलने. इसके पीछे मानस रहा होगा कि मेजर संदीप उन्नीकृष्णनन केरलाइट हैं. इसलिए वह उनके घर मिल कर केरल के लोगों की सहानुभूति पा लेंगे. इसी तरह मराठी मानुष राज ठाकरे हेमंत करकरे के घर जाना चाहते थे. अब लोग साफ़ समझ रहे हैं कि इन नेताओं का मकसद क्या है? मकसद, पवित्र शहादत की गपरमा और मर्यादा रखना नहीं, बल्कि इस पवित्र कुर्बानी को राजनीतिक तिजारत में बदल देना. शेष पेज 11 परनफ़रत के प्रतीक..चाहे केरल के संदीप उन्नीकृष्णन का पपरवार हो या मराठी हेमंत करकरे का पपरवार. वे अच्छी तरह जानते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री या राज ठाकरे को अचानक मिलने की जरूरत क्यों पड़ी? मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और हेमंत करकरे की शहादत की पवित्र नदी में डुबकी लगा कर अपने राजनीतिक पाप धो लें ! पर राजनीतिज्ञों के चाल और चेहरे लोग देखने और जानने लगे हैं. इसलिए केरल के मुख्यमंत्री और राज ठाकरे की क्षेत्रीयता भी काम नहीं आयी. दरअसल राजनीति ने समाज के प्रति एक बड़ा अपराध किया है. समाज को खांचों में बांट कर. जाति में, धर्म में, क्षेत्रीयता में. महज अपने वोट बैंक के लिए. यह बात अब लोग समझने लगे हैं. कहावत है, आप धोखा एक बार देंगे. पर उसी विषय पर बार-बार नहीं छल सकते. आजादी के बाद नेताओं का सपना अलग था. डॉ लोहिया ने उस सपने को सुंदर शब्दों में आवाज दी. कहा, िहदू बहल इलाके से मुसलमान जीतें, मुसलिम बहल इलाके से िहदू. उत्तर के लोग दक्षिण से जीतें, दक्षिण के लोग उत्तर से. राजा के खिलाफ़ मेहतरानी जीते... हमें यह देश चाहिए. पर नेताओं ने क्या किया? अब यह गणित साफ़ हो गया है. इसलिए लोग नेताओं का चेहरा नहीं देखना चाहते. होना तो यह चाहिए था कि सुरक्षा बल के बीस लोग मारे गये हैं. उत्तर से दक्षिण के. पूरब से पश्चिम के. इन सुरक्षाकर्मियों की शहादत ने भारत का भूगोल साफ़ कर दिया है. भारत पर विपत्ति आयी (मुंबई के बहाने) तो भारत के कोने-कोने के लोगों से बनी एनएसजी टीम के कमांडो ने कुर्बानी दी. क्या अच्छा होता, हमारे सभी वपरष्ठ नेता और सरकारें इन बीस सुरक्षाकर्मियों की शहादत के प्रति सार्वजनिक शोक का आयोजन करतीं. जो 195 निदरेष मारे गये, उनके प्रति राजनीतिक दल दिल्ली में सर्वदलीय सभा कर अपनी भूलों और पापों का सार्वजनिक प्रायश्चित करते. अपनी अकर्मण्यता, इनइफ़ीशियंसी और अनएकाउंटबिलिटी (गैर जवाबदेही) के लिए शहीदों के पपरवारों से सार्वजनिक माफ़ी मांगते. देश से, जनता से. बड़ी संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों के जो गरीब मारे गये हैं, उनके प्रति हमारे नेता और सरकारें सदाशयता से राहत देते. अनाथ पपरवारों को पालने का राष्ट-ीय जिम्मा लेते. पर ये छोटे मन के लोग बड़े पदों पर बैठे हैं. एक वर्ग मोदी किस्म के नेताओं का है, जो हर नाजुक घड़ी पर गिद्ध दृष्टि रखता है. ये लोग राष्ट-ीय शोक और शहादत को, राजनीति में ऊपर बढ़ने की सीढ़ी के अवसर के रूप में देखते हैं. जब सुरक्षा के जवान मुंबई में भारत की आन, बान और शान बचाने में लगे थे, उस वक्त उन जगहों पर पहंच कर समस्या खड़ा करने का क्या औचित्य था? क्या नरेंद्र मोदी कोई सुरक्षा एक्सपर्ट हैं? अब देखिए विलासराव देशमुख को? जब मुंबई में हमले हए, तो वे केरल में थे. उनके मुंहबोले डिप्टी (उपमुख्यमं़त्री) ने इतनी बड़ी वारदात के बाद कहा कि यह मामूली घटना थी. ऐसी घटनाएं तो मुंबई में होती रहती हैं. मुंबई के मुख्यमंत्री ने अपने डिप्टी के इस बयान से बढ़ कर काम किया. वह 30 नवंबर को अपने अभिनेता पुत्र रीतेश देशमुख और फ़िल्म निर्माता रामगोपाल वर्मा को लेकर ‘होटल ताज’ मुआयना पर गये. मानो तीर्थ यात्रा पर निकले हों. जिन जगहों पर भारत की इज्जत, गपरमा, आनबान और शान बिखरी पड़ी है, सुरक्षाकर्मियों के शहादत के पपवत्र खून पसरे हैं, जहां केंद्र सरकार, महाराष्ट- सरकार, इंटेलिजेंस और नेताओं की आपराधिक विफ़लता के कारनामे पसरे हैं, वहां जनाब मुख्यमंत्री मुआयना करने जाते हैं. वह भी फ़िल्मी लोगों के साथ. यह भारत की भावना को रौंदना है. अमेपरका में 9/11 हआ. वहां जगह-जगह लोगों ने ज्ञात-अज्ञात शहीदों की स्मृति में स्मारक बनाये. फ़ूल चढ़ाये. वहां जाकर मौन रहे. आज भी ऐसे प्रतीक स्थानों से जो गुजरते और जाते हैं, वे चुपचाप जूते उतार कर आदर के साथ याद करते हैं. और यहां जिम्मेदार पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों का यह गैरजिम्मेदराना आचरण? नेताओं से, राजनीति से क्यों लोगों की नफ़रत बढ़ती गयी? आज लोग अपने रहनुमाओं के खिलाफ़ सड़कों पर हैं. अपने घरों में नहीं आने देना चाहते. इसके कारण साफ़ हैं. डॉ लोहिया के शब्दों में कहें, तो कथनी और करनी का फ़र्क. गांधी को याद करें, तो साधन और साध्य में फ़र्क होना. क्या केंद्र सरकार, महाराष्ट- सरकार या शासन में बैठे लोग इन सवालों का जवाब देंगे?1. मुंबई विस्फ़ोट के बाद एक टेलीविजन पपरचर्चा में एनएसजी (नेशनल सिक्यूपरटी गार्डस) के पूर्व निदेशक श्री कक्कड़ ने बताया कि एनएसजी का गठन अलग उद्देश्यों के लिए हआ था. उसमें बाद में जोड़ा गया, नेताओं की सुरक्षा. एनएसजी के 600 कमांडों नेताओं की सुरक्षा में लगे हैं. हालांकि एनएसजी में जवानों की संख्या सीमित है. यह क्यों?2. पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटील के कार्यकाल में लगभग बीस बड़े विस्फ़ोट हए. फ़िर भी अब तक वह गद्दी पर क्यों बने रहे? वह लोकसभा चुनाव हार गये थे, फ़िर उन्हें मंत्री बनाना क्या मजबूरी थी? उनके बेटे एक शराब कंपनी के निदेशक बने और गृह मंत्री के घर का पता दिया. भारत सरकार के गृह मंत्री का घर क्या बिजनेस का प्रतीक है? इसके पहले ऐसा कभी नहीं हआ.3. मई में राजस्थान में विस्फ़ोट हए. राष्ट-ीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने कैबिनेट को बताया कि देश का सूचनातंत्र ध्वस्त हो गया है. सरकारी कामकाज में उच्चस्तर पर तालमेल नहीं है. शायद पहली बार कैबिनेट को सुरक्षा सलाहकार ने गवर्नेंस कोलैप्स (शासन तंत्र ध्वस्त) होने की स्थिति की जानकारी दी. राष्ट-ीय अखबारों की यह लीड खबर बनी. उसके बाद भी लगातार विस्फ़ोट होते रहे? पर केंद्र सरकार, उसकी एजेंसियां कुंभकरण की नींद सोती रहीं. ऐसा क्यों?4. सूचना है कि वर्ष 2005 में मुआरों के संघ ने सरकार को सूचित किया था, मछलियों के नीचे आरडीएक्स रख कर भारत भेजा जा रहा है?5. फ़रवरी में उत्तरप्रदेश में फ़हीम अहमद अंसारी पकड़ा गया. उसने कबूल किया कि लश्कर-ए-तैयबा मुंबई के पांच सितारा होटलों में विस्फ़ोट की योजना बना रहा है. फ़हीम ने खुद ताज होटल, ओबेराय ट-ाइडेंट होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल स्टेशन, बंबई स्टॉक एक्सचेंज और पुलिस कमिश्नर ओफ़स का मुआयना किया. वह ताज और ट-ाइडेंट की एक-एक लॉबी में घूमा. फ़हीम ने यह सब यूपी स्पेशल टास्क फ़ोर्स को बताया. उसने यह भी बताया कि यह सारा काम समुद्र के रास्ते होनेवाला है. फ़िर भी यह हादसा हआ. इससे बढ़ कर गैरजिम्मेदार काम और क्या?6. यह भी सूचना आयी कि गृह मंत्रालय ने मुंबई में होनेवाले इन हमलों के बारे में अग्रिम सूचना दी थी. रतन टाटा ने भी बताया कि ताज पर हमले की पूर्व सूचना थी. फ़िर केंद्र और राज्य सरकारों ने क्या किये?7. रात 9.30 बजे आतंकवादी हमला करते हैं और सुबह सात बजे के लगभग साढ़े नौ घंटा के बाद एनएसजी के जवान घटनास्थल पर पहंच पाये. क्या हमारे सिस्टम या सरकार की यही इफ़ीसियेंसी है? कौन है इसका गुनाहगार और दोषी?8. क्या शिवराज पाटील व आरआर पाटील पर इसलिए कार्रवाई हई, क्योंकि चुनाव नजदीक है? जनता अब सब जानती है. समझती है.9. 1993 में मुंबई में विस्फ़ोट हए. तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने तत्कालीन गृह सचिव एनएन वोरा के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बनायी. एनएन वोरा की परपार्ट ने साफ़-साफ़ बताया कि भारत की इस बदहाली के कारण क्या हैं? नेता, अपराधी, उद्योगपति और भ्रष्टाचापरयों का गंठजोड़. मुंबई विस्फ़ोट के बारे में जांच परपोर्ट से यह भी स्पष्ट हआ था कि कस्टम, पुलिस और नेवल भ्रष्ट अफ़सरों के सहयोग, इनइफ़िसियेंसी या लापरवाही से ही विस्फ़ोटक पदार्थ भारत लाये गये? ऐसे भ्रष्ट अफ़सरों के संरक्षक हैं, नेता और सरकार में बड़े पदों पर बैठे लोग. आज अफ़गानिस्तान, करांची और मुंबई के बीच ड-ग की अरबों की स्मगिलग हो रही है. इसका पैसा किनके पास जाता है? भ्रष्ट अफ़सर, चोर नेता और राजनीतिक दलालों के पास. और यही लोग आज व्यवस्था में सबसे आगे हैं. भारतीय राजनीति में आज दलालों का वह प्रभुत्व और महत्व है, जो आज के पहले कभी नहीं रहा. जहां सांसद बिकते हैं, लोकतंत्र में बहमत खरीदा और बेचा जाता है, जहां की राजनीति को ब्लैकमनी चलाती है, वहां के नेताओं और राजनीति के प्रति जनता में आग होना स्वाभाविक है.अगर यह स्थिति है, तो जनता के मन में नेता, सरकार या प्रशासन के प्रति कहां से और कैसे सम्मान पैदा होगा? बात इतनी ही नहीं है. पिछले तीन दशकों में जिस तरह से राजनीति में पतन हआ है, वह इस घृणा और नफ़रत की जड़ में है. राजनीतिज्ञ और नेता भूल गये हैं कि चपरत्र निर्माण और देश निर्माण साथ-साथ संभव है. 1960 में जब राजनीति इतनी गंदी नहीं हई थी, तब आचार्य कृपलानी ने सेमिनार पत्रिका के भ्रष्टाचार अंक में लेख लिखा था. भारत के हर राजनीतिज्ञ को यह लेख आज पढ़ना चाहिए. इससे वे आसानी से समझ जायेंगे कि नेताओं के प्रति यह आक्रोश, गुस्सा या नफ़रत क्यों है? आचार्य कृपलानी ने लिखा है कि भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद या पपरवारवाद ने साम्राज्यों को खत्म कर दिया, वे चाहे राजा रहे हों, या तानाशाह या राजनीतिज्ञ या प्रशासक. इस लेख में उन्होंने अनेक साम्राज्यों के नाम गिनाये हैं, जो इन्हीं कारणों से तबाह या नष्ट हो गये या मिट गये. नेताओं से नाराजगी के अनेक और असंख्य जेनुइन कारण हैं. पर इसके गंभीर और भयावह खतरे हैं. अंतत राजनीति के प्रति अनास्था लोकतंत्र को कमजोर करती है. लोकतंत्र से बेहतर कोई दूसरी प्रणाली नहीं. राजनीति से नफ़रत अंतत विखंडन, अराजकता या सैनिक तानाशाही की ओर ले जाती है. पर यह बात जनता से अधिक नेताओं को समझनी चाहिए. राजनीतिक दलों को इसका एहसास होना चाहिए. चाहे केरल के संदीप उन्नीकृष्णन का पपरवार हो या मराठी हेमंत करकरे का पपरवार. वे अच्छी तरह जानते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री या राज ठाकरे को अचानक मिलने की जरूरत क्यों पड़ी? मेजर संदीप उन्नीकृष्णन और हेमंत करकरे की शहादत की पवित्र नदी में डुबकी लगा कर अपने राजनीतिक पाप धो लें ! पर राजनीतिज्ञों के चाल और चेहरे लोग देखने और जानने लगे हैं. इसलिए केरल के मुख्यमंत्री और राज ठाकरे की क्षेत्रीयता भी काम नहीं आयी. दरअसल राजनीति ने समाज के प्रति एक बड़ा अपराध किया है. समाज को खांचों में बांट कर. जाति में, धर्म में, क्षेत्रीयता में. महज अपने वोट बैंक के लिए. यह बात अब लोग समझने लगे हैं. कहावत है, आप धोखा एक बार देंगे. पर उसी विषय पर बार-बार नहीं छल सकते. आजादी के बाद नेताओं का सपना अलग था. डॉ लोहिया ने उस सपने को सुंदर शब्दों में आवाज दी. कहा, िहदू बहल इलाके से मुसलमान जीतें, मुसलिम बहल इलाके से िहदू. उत्तर के लोग दक्षिण से जीतें, दक्षिण के लोग उत्तर से. राजा के खिलाफ़ मेहतरानी जीते... हमें यह देश चाहिए. पर नेताओं ने क्या किया? अब यह गणित साफ़ हो गया है. इसलिए लोग नेताओं का चेहरा नहीं देखना चाहते. होना तो यह चाहिए था कि सुरक्षा बल के बीस लोग मारे गये हैं. उत्तर से दक्षिण के. पूरब से पश्चिम के. इन सुरक्षाकर्मियों की शहादत ने भारत का भूगोल साफ़ कर दिया है. भारत पर विपत्ति आयी (मुंबई के बहाने) तो भारत के कोने-कोने के लोगों से बनी एनएसजी टीम के कमांडो ने कुर्बानी दी. क्या अच्छा होता, हमारे सभी वपरष्ठ नेता और सरकारें इन बीस सुरक्षाकर्मियों की शहादत के प्रति सार्वजनिक शोक का आयोजन करतीं. जो 195 निदरेष मारे गये, उनके प्रति राजनीतिक दल दिल्ली में सर्वदलीय सभा कर अपनी भूलों और पापों का सार्वजनिक प्रायश्चित करते. अपनी अकर्मण्यता, इनइफ़ीशियंसी और अनएकाउंटबिलिटी (गैर जवाबदेही) के लिए शहीदों के पपरवारों से सार्वजनिक माफ़ी मांगते. देश से, जनता से. बड़ी संख्या में देश के विभिन्न हिस्सों के जो गरीब मारे गये हैं, उनके प्रति हमारे नेता और सरकारें सदाशयता से राहत देते. अनाथ पपरवारों को पालने का राष्ट-ीय जिम्मा लेते. पर ये छोटे मन के लोग बड़े पदों पर बैठे हैं. एक वर्ग मोदी किस्म के नेताओं का है, जो हर नाजुक घड़ी पर गिद्ध दृष्टि रखता है. ये लोग राष्ट-ीय शोक और शहादत को, राजनीति में ऊपर बढ़ने की सीढ़ी के अवसर के रूप में देखते हैं. जब सुरक्षा के जवान मुंबई में भारत की आन, बान और शान बचाने में लगे थे, उस वक्त उन जगहों पर पहंच कर समस्या खड़ा करने का क्या औचित्य था? क्या नरेंद्र मोदी कोई सुरक्षा एक्सपर्ट हैं? अब देखिए विलासराव देशमुख को? जब मुंबई में हमले हए, तो वे केरल में थे. उनके मुंहबोले डिप्टी (उपमुख्यमं़त्री) ने इतनी बड़ी वारदात के बाद कहा कि यह मामूली घटना थी. ऐसी घटनाएं तो मुंबई में होती रहती हैं. मुंबई के मुख्यमंत्री ने अपने डिप्टी के इस बयान से बढ़ कर काम किया. वह 30 नवंबर को अपने अभिनेता पुत्र रीतेश देशमुख और फ़िल्म निर्माता रामगोपाल वर्मा को लेकर ‘होटल ताज’ मुआयना पर गये. मानो तीर्थ यात्रा पर निकले हों. जिन जगहों पर भारत की इज्जत, गपरमा, आनबान और शान बिखरी पड़ी है, सुरक्षाकर्मियों के शहादत के पपवत्र खून पसरे हैं, जहां केंद्र सरकार, महाराष्ट- सरकार, इंटेलिजेंस और नेताओं की आपराधिक विफ़लता के कारनामे पसरे हैं, वहां जनाब मुख्यमंत्री मुआयना करने जाते हैं. वह भी फ़िल्मी लोगों के साथ. यह भारत की भावना को रौंदना है. अमेपरका में 9/11 हआ. वहां जगह-जगह लोगों ने ज्ञात-अज्ञात शहीदों की स्मृति में स्मारक बनाये. फ़ूल चढ़ाये. वहां जाकर मौन रहे. आज भी ऐसे प्रतीक स्थानों से जो गुजरते और जाते हैं, वे चुपचाप जूते उतार कर आदर के साथ याद करते हैं. और यहां जिम्मेदार पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों का यह गैरजिम्मेदाराना आचरण? नेताओं से, राजनीति से क्यों लोगों की नफ़रत बढ़ती गयी? आज लोग अपने रहनुमाओं के खिलाफ़ सड़कों पर हैं. अपने घरों में नहीं आने देना चाहते. इसके कारण साफ़ हैं. डॉ लोहिया के शब्दों में कहें, तो कथनी और करनी का फ़र्क. गांधी को याद करें, तो साधन और साध्य में फ़र्क होना. क्या केंद्र सरकार, महाराष्ट- सरकार या शासन में बैठे लोग इन सवालों का जवाब देंगे?1. मुंबई विस्फ़ोट के बाद एक टेलीविजन पपरचर्चा में एनएसजी (नेशनल सिक्यूपरटी गार्डस) के पूर्व निदेशक श्री कक्कड़ ने बताया कि एनएसजी का गठन अलग उद्देश्यों के लिए हआ था. उसमें बाद में जोड़ा गया, नेताओं की सुरक्षा. एनएसजी के 600 कमांडों नेताओं की सुरक्षा में लगे हैं. हालांकि एनएसजी में जवानों की संख्या सीमित है. यह क्यों?2. पूर्व गृह मंत्री शिवराज पाटील के कार्यकाल में लगभग बीस बड़े विस्फ़ोट हए. फ़िर भी अब तक वह गद्दी पर क्यों बने रहे? वह लोकसभा चुनाव हार गये थे, फ़िर उन्हें मंत्री बनाना क्या मजबूरी थी? उनके बेटे एक शराब कंपनी के निदेशक बने और गृह मंत्री के घर का पता दिया. भारत सरकार के गृह मंत्री का घर क्या बिजनेस का प्रतीक है? इसके पहले ऐसा कभी नहीं हआ.3. मई में राजस्थान में विस्फ़ोट हए. राष्ट-ीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायणन ने कैबिनेट को बताया कि देश का सूचनातंत्र ध्वस्त हो गया है. सरकारी कामकाज में उच्चस्तर पर तालमेल नहीं है. शायद पहली बार कैबिनेट को सुरक्षा सलाहकार ने गवर्नेंस कोलैप्स (शासन तंत्र ध्वस्त) होने की स्थिति की जानकारी दी. राष्ट-ीय अखबारों की यह लीड खबर बनी. उसके बाद भी लगातार विस्फ़ोट होते रहे? पर केंद्र सरकार, उसकी एजेंसियां कुंभकरण की नींद सोती रहीं. ऐसा क्यों?4. सूचना है कि वर्ष 2005 में मुआरों के संघ ने सरकार को सूचित किया था, मछलियों के नीचे आरडीएक्स रख कर भारत भेजा जा रहा है?5. फ़रवरी में उत्तरप्रदेश में फ़हीम अहमद अंसारी पकड़ा गया. उसने कबूल किया कि लश्कर-ए-तैयबा मुंबई के पांच सितारा होटलों में विस्फ़ोट की योजना बना रहा है. फ़हीम ने खुद ताज होटल, ओबेराय ट-ाइडेंट होटल, छत्रपति शिवाजी टर्मिनल स्टेशन, बंबई स्टॉक एक्सचेंज और पुलिस कमिश्नर ओफ़स का मुआयना किया. वह ताज और ट-ाइडेंट की एक-एक लॉबी में घूमा. फ़हीम ने यह सब यूपी स्पेशल टास्क फ़ोर्स को बताया. उसने यह भी बताया कि यह सारा काम समुद्र के रास्ते होनेवाला है. फ़िर भी यह हादसा हआ. इससे बढ़ कर गैरजिम्मेदार काम और क्या?6. यह भी सूचना आयी कि गृह मंत्रालय ने मुंबई में होनेवाले इन हमलों के बारे में अग्रिम सूचना दी थी. रतन टाटा ने भी बताया कि ताज पर हमले की पूर्व सूचना थी. फ़िर केंद्र और राज्य सरकारों ने क्या किये?7. रात 9.30 बजे आतंकवादी हमला करते हैं और सुबह सात बजे के लगभग साढ़े नौ घंटा के बाद एनएसजी के जवान घटनास्थल पर पहंच पाये. क्या हमारे सिस्टम या सरकार की यही इफ़ीसियेंसी है? कौन है इसका गुनाहगार और दोषी?8. क्या शिवराज पाटील व आरआर पाटील पर इसलिए कार्रवाई हई, क्योंकि चुनाव नजदीक है? जनता अब सब जानती है. समझती है.9. 1993 में मुंबई में विस्फ़ोट हए. तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने तत्कालीन गृह सचिव एनएन वोरा के नेतृत्व में एक जांच कमेटी बनायी. एनएन वोरा की परपार्ट ने साफ़-साफ़ बताया कि भारत की इस बदहाली के कारण क्या हैं? नेता, अपराधी, उद्योगपति और भ्रष्टाचापरयों का गंठजोड़. मुंबई विस्फ़ोट के बारे में जांच परपोर्ट से यह भी स्पष्ट हआ था कि कस्टम, पुलिस और नेवल भ्रष्ट अफ़सरों के सहयोग, इनइफ़िसियेंसी या लापरवाही से ही विस्फ़ोटक पदार्थ भारत लाये गये? ऐसे भ्रष्ट अफ़सरों के संरक्षक हैं, नेता और सरकार में बड़े पदों पर बैठे लोग. आज अफ़गानिस्तान, करांची और मुंबई के बीच ड-ग की अरबों की स्मगिलग हो रही है. इसका पैसा किनके पास जाता है? भ्रष्ट अफ़सर, चोर नेता और राजनीतिक दलालों के पास. और यही लोग आज व्यवस्था में सबसे आगे हैं. भारतीय राजनीति में आज दलालों का वह प्रभुत्व और महत्व है, जो आज के पहले कभी नहीं रहा. जहां सांसद बिकते हैं, लोकतंत्र में बहमत खरीदा और बेचा जाता है, जहां की राजनीति को ब्लैकमनी चलाती है, वहां के नेताओं और राजनीति के प्रति जनता में आग होना स्वाभाविक है. अगर यह स्थिति है, तो जनता के मन में नेता, सरकार या प्रशासन के प्रति कहां से और कैसे सम्मान पैदा होगा? बात इतनी ही नहीं है. पिछले तीन दशकों में जिस तरह से राजनीति में पतन हआ है, वह इस घृणा और नफ़रत की जड़ में है. राजनीतिज्ञ और नेता भूल गये हैं कि चपरत्र निर्माण और देश निर्माण साथ-साथ संभव है. 1960 में जब राजनीति इतनी गंदी नहीं हई थी, तब आचार्य कृपलानी ने सेमिनार पत्रिका के भ्रष्टाचार अंक में लेख लिखा था. भारत के हर राजनीतिज्ञ को यह लेख आज पढ़ना चाहिए. इससे वे आसानी से समझ जायेंगे कि नेताओं के प्रति यह आक्रोश, गुस्सा या नफ़रत क्यों है? आचार्य कृपलानी ने लिखा है कि भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद या पपरवारवाद ने साम्राज्यों को खत्म कर दिया, वे चाहे राजा रहे हों, या तानाशाह या राजनीतिज्ञ या प्रशासक. इस लेख में उन्होंने अनेक साम्राज्यों के नाम गिनाये हैं, जो इन्हीं कारणों से तबाह या नष्ट हो गये या मिट गये. नेताओं से नाराजगी के अनेक और असंख्य जेनुइन कारण हैं. पर इसके गंभीर और भयावह खतरे हैं. अंतत राजनीति के प्रति अनास्था लोकतंत्र को कमजोर करती है. लोकतंत्र से बेहतर कोई दूसरी प्रणाली नहीं. राजनीति से नफ़रत अंतत विखंडन, अराजकता या सैनिक तानाशाही की ओर ले जाती है. पर यह बात जनता से अधिक नेताओं को समझनी चाहिए. राजनीतिक दलों को इसका अहसास होना चाहिए
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