प्रिय एनबीए, मुंबई हमले के हमारे कवरेज की जमकर खबर ली गई है। हमारी जो कड़ी आलोचना हुई है उसे लेकर हम सब उलझन में हैं। हमें समझ में ही नहीं आ रहा है कि इतना शोरगुल क्यों मचाया जा रहा है। हमने हमले का प्रसारण वैसे ही किया जैसे हम इतने बरसों से अन्य घटनाओं का करते आ रहे हैं। साठ घंटे के नाटकीय घटनाक्रम के हर मिनट हम वहां अपनी जान जोखिम में डालकर, बिना नींद या विश्राम के डटे रहे। इस बार वास्तव में हमें लगा कि हम राष्ट्रीय कर्तव्य निभा रहे हैं। इसके लिए मिलने वाली तालियों की आवाज कहां है? हमें सराहना के बजाय आलोचना मिल रही है, यह हजम होना कठिन है।
हमारे दर्शकों ने राष्ट्रीय संकट की घड़ी में नैतिक कंगाली दिखाने के लिए नहीं, अवसर के अनुरूप स्तर न उठा पाने के लिए हमारी धुलाई की है। सामने नजर आ रहे घटनाक्रम के परे ले जाने की हमारी अक्षमता का विरोध हो रहा है। हम यह भी नहीं समझ पाए कि मुंबई हमले जैसे संकट के वक्त ऊंचे स्वर में दिखाई गई वाचालता ठीक नहीं थी। इसे इस तरह समझा जा सकता है कि सारे टीवी चैनल लगातार साठ घंटे तक घटनास्थल का सीधा प्रसारण देते रहे।
इसके बावजूद हमारे दर्शक अगले दिन के अखबार की ओर लपकते नजर आए। जाहिर है हम दर्शकों की जिज्ञासा तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन उसे संतुष्ट करने का कौशल हममें नहीं है। गहराई से की गई रिपोर्टिग का काम हमने बड़ी खुशी से अगले दिन के अखबारों पर छोड़ दिया। यह हमले के एकमात्र आतंकी जिंदा पकड़ने के लिए शहीद होने वाले तुकाराम ओंबले और हमले के बहुत सारे हीरो व शिकार लोगों के मामले में भी हुआ। साफ है कि टीवी वही देख सकता है जो खुलकर इसके सामने आए, वह नहीं जो छिपा हुआ हो।
पूरे साठ घंटे घटनास्थल पर हम मौजूद रहे। संकट ऐसा था कि हम इतना ही कर सकते थे। स्टोरी आगे नहीं बढ़ रही थी, लेकिन हमें यह बताना था कि घटनाएं हर पल घट रही हैं। यहीं पर नाटकीयता का प्रवेश हुआ। इतने बरसों में हमने इस फामरूले पर महारत हासिल कर ली है कि जब दिखाने को आपके पास कुछ नहीं है तो उस ‘कुछ नहीं’ में से बहुत कुछ निकाल लें।
यही वजह रही कि ताज होटल की खिड़की में जब भी लपटें नजर आईं 50 चैनलों में यह ‘सबसे पहले’ के टैग के साथ एक्सक्लूसिव शॉट बना! व्यक्तिगत त्रासदी, बहादुरी व बच निकलने की सारी घटनाएं टीवी पर संकट खत्म होने के बाद ही नजर आईं (ज्यादातर अखबारों से उठाई गईं)। यदि ऐसी कुछ घटनाएं भी लाइव प्रसारण के साथ पेश की जातीं, तो खोखली अतिशयोक्ति से बचकर प्रसारण में कुछ जान और गंभीरता आ पाती। हमारी यही अक्षमता दर्शकों से बर्दाश्त नहीं हुई, क्योंकि जब पूरी दुनिया हमारी दहलीज पर थी, तब हम पूरी तरह नाकाबिल साबित हुए।
फिर भी आप (एनबीए) इस समस्या को सुलझाने के लिए कुछ नहीं करेंगे, क्योंकि इसमें कठोर परिश्रम और नए विचार व परिवर्तन के साथ खर्च भी आएगा। इसके बजाय आप परिवर्तन का झूठा आवरण तैयार करेंगे। आप स्कूल में डांट खाए बच्चों की तरह सरकार के पास जाकर वादा करेंगे कि बंधक बनाने की घटनाओं का लाइव प्रसारण नहीं होगा, प्रसारण कुछ मिनटों के अंतराल से किया जाएगा। यह एक जिम्मेदारी भरा कदम है, लेकिन इससे अगली बड़ी चुनौैती के वक्त कवरेज की गुणवत्ता में इजाफा होगा?
इसके जवाब के लिए मुंबई हमले के कवरेज पर निगाह डालें। यह कुछ इस तरह हुआ : एक चीखता-चिल्लाता व हांफता एंकर आपको ताजा ब्रेकिंग न्यूज बताता है (जो वहीं है जिसे इसी चैनल पर आप घंटेभर पहले देख चुके थे)। वह भी वही खबर उसी अंदाज में सुना देता है। फिर एंकर पूरी घटना की समीक्षा के बहाने एक बार और उसे दोहराता है। साठ घंटों तक चैनलों पर यही चलता रहा। यदि यही वह खुफिया जानकारी है जो आतंकियों को देने का हम पर आरोप लग रहा है, तो सरकार को हमारा सम्मान करना चाहिए। इसलिए कि इतना बोलकर भी हमने दर्शकों व आतंकियों को इतना कम दिया।
अब अगर प्रसारण पांच ंिमनट देर से किया जाता तो क्या फर्क पड़ता? चीखने-चिल्लाने का कार्यक्रम पांच मिनट देर से शुरू होता और 60 घंटे बाद पांच मिनट ऊपर चलता। आतंकी भी एनएसजी के खिलाफ तालमेल बिठाने और गलत दिशा में गोलीबारी करने में पांच मिनट लेट हो जाते।
निसंदेह मैं जरा बढ़ाकर कह रहा हूं, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि गेटवे ऑफ इंडिया का मामूली बायस्कोप वाला हम पर भारी पड़ता! (देखो देखो./आतंक का यह तांडव देखो/ खून का यह खेल देखो/ताज में यह आग देखो/ट्रायडेंट पर यह हमला देखो/नरीमन का नरसंहार देखो..)
यदि टीवी पर किसी चीज को तत्काल इलाज की जरूरत है, तो वह है एक फामरूला (चीखने-चिल्लाने व हांफने का) सब जगह फिट करने की बीमारी। जब हम दिल्ली में ब्ल्यू लाइन बस दुर्घटना में मौत की घटना और मुंबई हमले को समान रोष व तीव्रता से पेश करते हैं, तो साधारण और असाधारण का अंतर मिटा देते हैं। देश टीवी पर नैतिकता के अभाव के बजाय तार्किकता के अभाव से उकता गया है। इस समस्या से निपटने के लिए किसी कोड की नहीं रिपोर्टर की संस्था को जीवित करने की जरूरत है, क्योंकि प्रसारण में जान तभी आएगी। यह एक ऐसी संस्था है जो बिकाऊपन से टीवी के गठजोड़ के तीन वर्षो में नष्ट हो गई है।
हमें आत्म नियमन के बजाय गहरे आत्म निरीक्षण की जरूरत है। हम इसकी शुरुआत खुद से कुछ सवाल पूछकर कर सकते हैं: शुरुआती दौर के बाद हम बड़े रिपोर्टर क्यों नहीं पैदा कर पाए? रिपोर्टर को खत्म करके हम समाचार संगठन के रूप में अस्तित्व बचा पाएंगे? हममें से कितने ‘न्यूज चैनल’ का लाइसेंस रखने के हकदार हैं?
खेद है कि आत्म नियमन संहिता के ये मगरमच्छ के आंसू दर्शाते हैं कि हम गहरे आत्ममंथन से कोसो दूर हैं। इसके विपरीत यह बताता है कि हम अभी बदलाव से इनकार कर रहे हैं और सोचते हैं कि सिर्फ मास्क या मेकअप बदलना ही काफी होगा। हमने सही राह न चुनने का ही फैसला ले लिया है। एनबीए अपनी लीक पर चलता रहेगा जब तक कि अगली बड़ी त्रासदी में दर्द फिर लौटकर नहीं आता! आपका,
Monday, January 12, 2009
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