इस समय सारी दुनिया का ध्यान गाजापट्टी पर केन्द्रित है जहां इजरायली सेना हमास के खिलाफ जमीनी और हवाई कार्रवाई में जुटी हुई है. लेकिन आश्चर्यजनक है कि गाजापट्टी से कई गुना अधिक अमानवीय कृत्य कर रही श्रीलंकाई सेना के खिलाफ भारत के तथाकथित मानवाधिकारवादी पूरी तरह से मौन साधे हुए हैं. श्रीलंकाई एयरफोर्स और उसकी थलसेना लिट्टे के सफाये के नाम पर तमिलों का नरसंहार कर रही है. देश में तो दूर तमिल राष्ट्रवाद की कसम खानेवाले मुख्यमंत्री एम करूणानिधि का द्रविण मुनेत्र कजगम भी अपनी आंखों पर काली पट्टी बांधे हुए बैठा है. क्या गाजापट्टी के मुसलमानों का खून खून है और तमिलों का खून पानी?
लिट्टे एक आतंकवादी संगठन है जिसका प्रमुख वेलुपिल्लई प्रभाकरण है. प्रभाकरण भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी और श्रीलंका के राष्ट्रपति प्रेमदास सहित हजारों हत्याओं का दोषी है. लेकिन हमास भी कोई गांधीवादी संगठन नहीं है. यदि इजरायल मानवाधिकार का उल्लंघन कर रहा है तो श्रीलंका भी युद्ध विराम का उल्लंघन कर रही है जो यूरोपीयन यूनियन और स्कैण्डनेवियन देशों की मध्यस्थता में लागू हुआ था. जो लोग लिट्टे को अलगाववादी करार देकर उसके समर्थन में भारत द्वारा हस्तक्षेप का विरोध करते हैं उनका तर्क है कि हमारे यहां भी पूर्वोत्तर और कश्मीर में अलगाववादी संगठन सक्रिय हैं. लिट्टे का समर्थन यानी अपने यहां भी अलगाववादियों का समर्थन. तमिलों की तुलना कश्मीर के अलगाववादियों से नहीं की जा सकती. ऐसे लोग लिट्टे की वर्तमान नीति का जानबूझकर अनदेखी कर रहे हैं. 2001 से लिट्टे ने अलग तमिल राष्ट्र की मांग छोड़ दी थी. 2001 में रानिल विक्रमसिंघे के राष्ट्रपति बनने पर लिट्टे ने एकतरफा युद्धविराम की घोषणा कर दी थी. लिट्टे की ही पहल पर मार्च 2002 में श्रीलंका सरकार और लिट्टे के बीच युद्धविराम के दस्तावेज पर दस्तखत भी हुए. नार्वे समेत स्कैण्डनेवियन देशों ने श्रीलंका में बाकायदा मानिटरिंग मिशन भी चलाया. छह चक्रों की वार्ता के बीच लिट्टे ने अंतरिम स्वशासी प्राधिकरण की भी मांग की जिसे श्रीलंका सरकार ने ठुकरा दिया. उस समय अंतराष्ट्रीय समुदाय ने लिट्टे की इस मांग का स्वागत किया था. दिसंबर 2005 में ओस्लो (नार्वे) में वार्ता पुनः प्रारंभ करने की कवायद शुरू हुई. श्रीलंका सरकार ने हठ किया और लिट्टे ने वार्ता के लिए अपने इलाकों को सुरक्षित गलियारा देने की मांग की जिसके कारण बैठक असफल हो गयी. लगातार एक दूसरे की अनदेखी और वचनभंग की परिणिति अंततः युद्ध के रूप में हुई.
श्रीलंकाई सेना ने लिट्टे के मुख्यालय किलिनोच्ची पर कब्जा कर लिया है. श्रीलंका में लोग अब जल्द प्रभाकरण के कब्जे में आने और लिट्टे के सफाये की उम्मीद जताने लगे हैं. भारत का क्या रवैया है यह बीते शनिवार को वीरप्पा मोईली के उस बयान से साफ हो जाता है जिसमें उन्होंने प्रभाकरण के पकड़े जाने पर उसके प्रत्यर्पण की मांग रखने की बात कही है. हम लिट्टे या प्रभाकरण का कहीं से समर्थन नहीं कर सकते. लेकिन क्या लिट्टे के उस राजनीतिक विंग को नष्ट होने दिया जाए जिसने तमिलों को श्रीलंका से बेहतर प्रशासन दिया है, उसको भी यूं ही नष्ट हो जाने दिया जाए?
भले ही लिट्टे का इतिहास एक आतंकवादी संगठन का रहा हो पर उत्तरी श्रीलंका में लिट्टे ने अपने कब्जेवाले इलाकों में लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर जिस तरह से सुशासन स्थापित किया है उससे अंतरराष्ट्रीय वार्ताकार भी उसके आंतरिक स्वशासन की मांग को जायज ठहराते हैं. उनकी यह मांग कितनी जायज है यह उनकी प्रशासनिक क्षमता से सिद्ध होता है. तमिल क्षेत्र में बाकायदा लिट्टे सरकार फौजदारी और दीवानी अदालतें संचालित करती है. तमिल ईलम के न्यायिक प्रणाली में जिल्ला, उच्च और सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था है. अपील के लिए इनके पास दो उच्च न्यायालय हैं. इन न्यायालयों में बलात्कार, हत्या, दंगा और लूटपाट जैसे मामलों के मुकदमें चलाए जाते हैं. सर्वोच्च न्यायालय के पास समग्र तमिल ईलम का दायरा है. लिट्टे समय समय पर विधिक प्रकाशन और उनका संशोधन भी करता है. कानून का शासन बनाये रखने के लिए 1991 में तमिल ईलम पुलिस की स्थापना की गयी. पुलिस और कानून के कारण तमिल क्षेत्र में शेष श्रीलंका की तुलना में कानून का राज बेहतर है. आंतरिक कर वसूली से जमा राजस्व से शिक्षा एवं स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सेवाओं का संचालन होता है. लिट्टे ने तमिल नागरिकों के अधिकारों के लिए उनका अपना मानवाधिकार आयोग बना रखा है. क्षेत्र के विकास के लिए 2004 में प्लानिंग एण्ड डेवलपमेन्ट सेक्रेटेरिएट का भी गठन किया गया है. तमिल राज्य की सीमा पर सीमाशुल्क वसूलने के लिए लिट्टे का अपना कस्टम विभाग है. तमिल रेडियो सेवा वाईस आफ टाईगर्स और टेलीविजन सेवा नेशनल तमिल ईलम सर्विसेज के नाम से प्रसारित की जाती हैं. लिट्टे के अपने बैंक का नाम 'बैंक आफ तमिल ईलम' है जो श्रीलंका की किसी बैंक की तुलना में बेहतर ब्याज देती है. स्त्रियों को तमिल ईलम बराबरी का सम्मान देता है. उनकी समतापरक नीति के चलते ही लिट्टे की आतंकी गतिविधियों में भी महिलाओं की बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी रही है. अनुमान है कि अब तक 4000 तमिल महिलाएं तमिल ईलम के लिए अपनी कुर्बानी दे चुकी हैं. लिट्टे पूरी तरह से सेकुलर सिद्धांतों को माननेवाला संगठन है और उसकी कमाण्डरों की सूची में कर्नल चार्ल्स, कैप्टन मिलर, कर्नल विक्टर, कर्नल अकबर और कर्नल निजाम जैसे नाम सामान्य हैं. लिट्टे भारत और अमेरिका समेत 31 देशों में प्रतिबंधित संगठन है, बावजूद इसके कनाडा, चीन, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी, इटली और नार्वे जैसे देशों से उसके राजनयिक संबंध हैं. 2002 में सीजफायर के बाद विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेन्ट बैंक समेत संयुक्त राष्ट्र की तमाम एजंसियां तमिल ईलम के राजनीतिक तंत्र के साथ सतत संपर्क में रही हैं. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव कोफी अन्नान के विशेष दूत डैनी के डेविस और यूनाईटेड नेशंस हाई कमिश्नर फार रिफ्यूजिज के एंटानियों गटरेस भी लिट्टे पदाधिकारियों से सीधी बैठकें कर चुके हैं.
भारत के मानवाधिकारवादियों ने 1983 में सिंहलियों द्वारा तमिलों के क्रूर नरसंहार का विरोध भी कर चुके हैं. 1983 में सिंहलियों ने कम से कम 4000 तमिलों की क्रूर हत्या कर दी थी. तमिलों की संपत्ति खाक कर दी गयी थी और तमिल स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुए थे. इसके बाद ही लिट्टे एक आक्रामक संगठन हो गया जबकि इसकी स्थापना इसके बहुत पहले 1972 में ही हो चुकी थी. 11 वर्षों तक लिट्टे हिंसक नहीं था लेकिन उसे हिंसा के मार्ग पर सिंहलियों ने धकेला. 2001 से 2005 के बीच लिट्टे ने नागरिक अधिकार प्राप्त करने के लिए सारे प्रयास किये जो कि वैश्विक मानदंड के अनुकूल थे. लेकिन श्रीलंका सरकार के हठ से वार्ता विफल हो गयी और अब लिट्टे की सफाई के नाम पर श्रीलंका तमिलों की सफाई कर रहा है. पिछले एक साल से तमिल जनता भारत सरकार से गुहार लगा रही है कि उनकी रक्षी की जाए. लेकिन तमिलनाडु के मुख्यमंत्री भी कोरे बयान देने के अलावा कुछ नहीं कर पाये हैं. यहां तक कि केन्द्र सरकार में हिस्सेदार होने के बावजूद वे केन्द्र सरकार पर तमिलों की रक्षा के लिए भी कोई दबाव नहीं बना पाये हैं. करूणानिधि ने अक्टूबर में कहा था कि अगर भारत सरकार तमिलों की रक्षा के लिए कोई नीति नहीं बनाती है तो उनके सांसद इस्तीफा दे देंगे. उनके पास डीएमके सांसदों के इस्तीफे लिखकर पड़े हुए हैं फिर भी वे श्रीलंकाई सेना की आक्रामकता के खिलाफ मुखर क्यों नहीं है?
भारत भले ही श्रीलंका को सैनिक सहयोग देता हो लेकिन श्रीलंका के वर्तमान प्रमुख भारत की गिनती श्रीलंका के मित्र राष्ट्रों में नहीं करते. राजपक्षे बार-बार यह कह चुके हैं कि यदि भारत सरकार लिट्टे के खिलाफ लड़ाई में उनकी मदद नहीं करेगा तो वे चीन या पाकिस्तान से मदद ले लेंगे. श्रीलंका ने चीन से भारी निवेश प्राप्त किया है. ईरान और सऊदी अरब से दोस्ती करके तेल हासिल किया है तो पाकिस्तान से हथियार. अब वक्त आ गया है कि भारत सरकार इस मुद्दे पर सख्त रवैया अपनाये. चीन श्रीलंका को उसी तरह अपनी ओर मिला रहा है जैसे उसने म्यामांर को अपनी तरफ मिलाया है. म्यामांर में कोको आईलैण्ड में जिस दिन चीनी सैन्य प्रतिष्ठान स्थापित हुआ उसी दिन से पूर्वी तटों पर स्थित हमारे सैन्य प्रतिष्ठान चीनी निगरानी की जद में आ गये हैं. अगर चीन श्रीलंका में अपना बेस बनाने में कामयाब हो जाता है तो कलपक्कम रियेक्टर, कुडनकुलम पावर रियेक्टर और केरल स्थित अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र को अपनी मानिटरिंग की जद में शामिल कर लेगा. चीन वहां तभी हावी हो सकता है जब लिट्टे के टाईगर बिल्ली बन जाएं. आज की परिस्थितियों में श्रीलंका में भारत कमजोर है जबकि चीन और पाकिस्तान हावी हो रहे हैं. यह सही मौका है जब भारत को श्रीलंका में ज्यादा व्यावहारिक रणनीति अपनानी चाहिए. मंदी की मार झेल रहा चीन इस समय बहुत सोच विचार के बाद अपने डालर खर्च कर रहा है और पाकिस्तान अपने ही बंटवारे के संकट से जूझ रहा है. भारत के खिलाफ पाकिस्तानी मदद की गुहार पर भी चीन ने कोई खास प्रतिक्रिया नहीं दिखाई और श्रीलंका में भी वह कोई प्रयोग नहीं करना चाहेगा. यूरोपीय और स्कैण्डनेवियन देश मानवाधिकारों के हनन के चलते आर्थिक मदद देने से इंकार कर चुके हैं. भारत को चाहिए समय रहते श्रीलंका में शांति सेना भेजने की गलती स्वीकार करे और नये सिरे से रणनीति को निर्धारित करे.
Tuesday, January 20, 2009
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