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Monday, January 12, 2009

झारखंड में सत्तालोलुपता

झारखंड में सत्तालोलुपता



यह भारतीय राजनीति में नैतिक मूल्यों के अवसान का एक और दुखद अध्याय है कि विधानसभा उपचुनाव हारने के चार दिन बाद भी शिबू सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री बने हुए हैं। न सिर्फ पद पर बने हुए हैं बल्कि कुर्सी बचाने के लिए हरसंभव राजनीतिक जोड़-तोड़ में मुब्तिला हैं। स्वतंत्र भारत के इतिहास में वह महज तीसरे मुख्यमंत्री हैं जिन्हें उपचुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। उनकी प्रेरणा के लिए त्रिभुवन नारायण सिंह का उदाहरण काफी होता, जिन्हें साठ के दशक में उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा था।

लाल बहादुर शास्त्री के मित्र त्रिभुवन नारायण सिंह तब उपचुनाव में प्रचार के लिए भी नहीं गए थे (वह मानते थे कि राज्य की जनता का प्रतिनिधि होने के नाते मुख्यमंत्री को खुद अपना प्रचार करने की जरूरत नहीं होनी चाहिए) और हार के फौरन बाद इस्तीफा देकर अज्ञातवास में चले गए थे। पंद्रह दिनों तक तमाड़ में रहकर प्रचार अभियान चलाने वाले शिबू सोरेन से साठ के दशक की मूल्यों और शुचिता की राजनीति की अपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन उन्हें जनादेश की भावना से निर्लज्ज खिलवाड़ की इजाजत भी नहीं दी जानी चाहिए।

कुर्सी बचाने के लिए जिन विकल्पों की जुगत में वह दिखाई दिए हैं, वे भी भारतीय राजनीति के पतन का दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण हैं। पहले कहा गया कि वे छह महीने की बची अवधि में दूसरा उपचुनाव लड़कर विधानसभा में आ जाएंगे। फिर संकेत दिए कि संप्रग का नेतृत्व केंद्र में उन्हें मंत्री बनाने को राजी हो जाए, तो वह झारखंड का मुख्यमंत्री पद छोड़ देंगे। रांची में पार्टी की एक बैठक में बाकायदा अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनाने की संभावनाएं टटोलने से भी उन्होंने गुरेज नहीं किया। इस सबके दो ही अर्थ हैं। तमाड़ के नतीजे का उनके लिए कोई लोकतांत्रिक महत्व नहीं है।

दूसरा, सत्तालोलुपता में वह किसी भी हद तक जा सकते हैं। दुर्भाग्य से संप्रग में उनके सहयोगी दलों ने भी उन्हें राजनीतिक तकाजे के अनुरूप आचरण के लिए प्रेरित या बाध्य नहीं किया। सभी पार्टियां इस संकट के तवे पर अपनी भावी राजनीति की रोटियां सेंकना चाहती हैं। दागदार पृष्ठभूमि के एक नेता को पराजित करके तमाड़ की जनता ने जो संदेश दिया, जब तक सारे राज्य की जनता उसे नहीं दोहराएगी, तब तक हमारे राजनीतिक दल लोकतांत्रिक मर्यादा का पाठ नहीं पढें़गे।

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