बिहारियों का अपराध क्या है जो असम से लेकर महाराष्ट्र तक हर जगह उन पर हमला होता है?
मदन महतो कोई संपन्न घर का नहीं है फिर भी पांच-छह साल पहले जब वह दिल्ली आया था तो आप और जाईयेगा वाली भाषा में बात करता था. लेकिन अब वह आंशिक रूप से दिल्ली वाला हो गया है. दिल्ली की एक सड़कछाप गाली "बहन के लौरे" उसने अच्छी तरह से आत्मसात कर लिया है. यह सब उसने इसलिए किया क्योंकि यहां कामकाजी वर्ग में दिल्ली और गैर-दिल्लीवाले का भेद इसी गाली वाले लहजे से पता चलता है. तो अब वह दिल्लीवाला हो गया है. हर दूसरे शब्द के साथ गाली जोड़ देता है. पक्का दिल्लीवाला लगे इसलिए आप की जगह लोगों से तू-तड़ाक में बात करता है. उसकी सांस्कृतिक चेतना लुप्त हो गयी है. उसकी भाषा भले बदल गयी हो लेकिन भाषा की मिठास वह चाहकर भी नहीं छोड़ पा रहा है. वह इतना रिफाईन्ड नहीं हो सकता क्योंकि स्कूल में ज्यादा पढ़ा नहीं है. फिर भी उसने अपनी तईं खूब कोशिश की है कि वह पूरा दिल्लीवाला बन सके.
दिल्ली में जिसको पिछड़ा घोषित करना हो तो एक शब्द बोल दीजिए. बिहारी है क्या. थोड़ा और नंगई पर उतरना हो तो साला शब्द भी जोड़ सकते हैं. और लोग जोड़ते हैं. बिहार के लोगों को अपमानित करने के लिए खुद नंगे हो जाते हैं. शायद इससे उनके तुष्ट मानस को संतुष्टि मिलती हो. और इस आक्रमणकारी मानसिकता के कारण वे अपनी मूर्खता और अयोग्यता छिपा ले जाते हैं. यह केवल बिहारी और पंजाबी या सिन्धी का खेल नहीं होता. यह एक संस्कृति का दूसरे पर हावी होने की आक्रमणकारी कला है. अगर ऐसा न हो तो पलटकर बिहार का आदमी पूछ सकता है कि तुम भी तो पाकिस्तान से भागकर आये हो? वह सिन्धी या पंजाबी समुदाय के अधिकांश लोगों के लिए भगोड़ा शब्द का इस्तेमाल कर सकता है लेकिन नहीं करता. शायद उसकी सांस्कृतिक चेतना उसे ऐसा करने से रोकती है.
इस तरह एक पतित सभ्यता जागृत चेतना पर हावी हो जाती है. मैंने देखा है कई बार बिहार के लोग मुझसे कहते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में क्या फर्क है? तो तुम हमसे अलग कहां हो? शुरू में मुझे लगता था कि ये मुझे अपने साथ क्यों जोड़ना चाहते हैं? फिर मैं प्रतिरोध करता था. तर्क देता था कि इलाहाबाद का बिहार से क्या लेना-देना. लेकिन लोग बताते हैं कि देश के कुछ हिस्सों में बनारस और आस-पास के लोगों को यूपी का बिहारी कहा जाता है. अब मैं प्रतिवाद नहीं करता. हो सकता है मेरे अंदर थोड़ी समझ आ गयी हो इसलिए मैं प्रतिवाद नहीं करता लेकिन उन लोगों को कब समझ आयेगी जिन्होंने एक क्षेत्र और कौम को ही निंदित घोषित कर दिया है?
बिहारी शब्द अरूचि क्यों पैदा करने लगा है? जबकि जहां भी बिहार के प्रवासी हैं वे उस अर्थव्यवस्था में रीढ़ की तरह अपना योगदान देते हैं. क्या रीढ़ को हटाकर हम किसी शरीर की कल्पना कर सकते हैं. जिस महाराष्ट्र में बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे दोयम दर्जे के लोग नफरत की राजनीति कर रहे हैं वहां के औद्योगिक इलाकों में मैं खूब घूमा हूं. आप किसी भी एमआईडीसी में चले जाईये, जहरीले रसायनों और खतरों के बीच जो इंसान अपना खून-पसीना बहा रहा होगा वह बिहार का मजदूर होगा. यूपी के लोग थोड़े चालाक हैं इसलिए यूपी के मजदूर उस तादात में फैक्ट्रियों में काम नहीं करते. करते भी हैं तो सुपरवाईजर और वाचमैन होते हैं. लेकिन असली हाड़तोड़ मेहनत बिहार का मजदूर करता है. एमआईडीसी के आस-पास मजदूरों की बस्ती में रहता है. कल्याण की एमआईडीसी का मैंने सघन दौरा किया है और उन मजदूरों के बीच रहा हूं.
बिहारी मजदूरों का जीवन ऐसा होता है कि वे सप्ताह में एक दिन सूरज देखते हैं. बाकी के दिन सूरज निकलने से पहले फैक्ट्री के अंदर और सूरज डूबने के बाद बाहर निकलते हैं. अधिकांश केमिकल और साड़ी प्रिंटिंग की कंपनियां हैं जिसमें बिना किसी सुरक्षा उपाय के वे मजदूर 12 घंटे की शिफ्ट लगाते हैं. इसके बदले में उन्हें 120 से 150 रूपये मिलते हैं. यह उस बिहारी मजदूर की मेहनत का ही तमाशा है कि मुंबई औद्योगिक नगरी बनी इतरा रही है. इतना सस्ता लेबर शायद ही दुनिया के किसी देश में मिलता हो. यह बाल ठाकरे भी समझते हैं और राज ठाकरे भी. लेकिन इस बात को बिहार का ही राजनीतिक नेतृत्व नहीं समझ सका. उसे आज तक इस बात का अहसास नहीं हो सका कि अपने राज्य के लोगों के लिए वह सम्मानित रोजगार के अवसर कैसे पैदा कर सकें? तो फिर दोष किसका ज्यादा है? बाल ठाकरे का या लालू प्रसाद और नीतिश कुमार जैसे लोगों का जो बहुत बेशर्मी से बिहार का नेता होने का दावा करते हैं? क्या यहां की राजनीतिक चेतना का आर्थिक रूपातंरण नहीं हो सकता?
Friday, January 23, 2009
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